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संग्राम

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सन्देह नहीं है। मैं कामवासनाकी चपेटमें आ गया हूँ और किसी तरह मुक्त नहीं हो सकता। खूब जानता हूं कि यह महा-घोर पाप है! आश्चर्य होता है कि इतना संयमशील होकर भी मैं इसके दांवमें कैसे आ पड़ा। ज्ञानीको अगर ज़रा भी सन्देह हो जाय तो वह तो तुरंत विष खा ले। लेकिन अब परिस्थितिपर हाथ मलना व्यर्थ है। यह विचार करना चाहिये कि इसका अन्त क्या होगा। मान लिया कि मेरी चाहें सीधी पड़ती गईं और वह मेरा कलमा पढ़ने लगी तो? कलुषित प्रेम? पापाभिनय! भगवन्! उस घोर नारकीय अग्निकुण्डमें मुझे मत डालना। मैं अपने मुखको और उस सरलहृदया बालिकाकी आत्माको इस कालिमासे वेष्ठित नहीं करना चाहता। मैं उससे केवल पवित्र प्रेम करना चाहता हूँ, उसकी मीठी-मीठी बातें सुनना चाहता हूं, उसके मधुर मुस्कानकी छटा देखना चाहता हूँ, और कलुषित प्रेम क्या है.........जो हो, अब तो नाव नदीमें डाल दी है, कहीं न कहीं पार लगेगी ही। कहाँ ठिकाने लगेगी? सर्वनाशके घाटपर! हां मेरा सर्वनाश इसी बहाने होगा। यह पाप पिशाच मेरे कुलको भक्षण कर जायगा। ओह!

यह निर्मुल शंकाएं हैं। संसारमें एकसे एक कुकर्मी व्यभिचारी पड़े हुए हैं, उनका सर्वनाश नहीं होता। कितनों ही को मैं जानता हूँ जो विषयभोगमें लिप्त हो रहे हैं। ज्यादासे ज्यादा उन्हें