पृष्ठ:संग्राम.pdf/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
पहला अङ्क

३९

चरणोंपर सिर झुका दूँ। ईश्वर के लिये यह मत समझो कि मैं तुम्हें कलङ्कित करना चाहता हूँ। कदापि नहीं! जिस दिन यह कुभाव, यह कुचेष्टा, मनमें उत्पन्न होगी उस दिन हृदयको चीर कर बाहर फेंक दूंगा। मैं केवल तुम्हारे दर्शनोंसे अपनी आंखों- को तृप्त करना, तुम्हारी सुललित वाणीसे अपने श्रवणको मुग्ध करना चाहता हूँ। मेरी यही परमाकांक्षा है कि तुम्हारे निकट रहूं, तुम मुझे अपना प्रेमी और भक्त समझो और मुझसे किसी प्रकारका परदा या सङ्कोच न करो। जैसे किसी सागरके निकटके वृक्ष उससे रस खींचकर हरे भरे रहते हैं उसी प्रकार तुम्हारे समीप रहनेसे मेरा जीवन आनन्दमय हो जायगा।

(चेतनदास एक भजन गाते हुए दोंनो प्राणियोंको
देखते चले जाते हैं।)

राजेश्वरी--(मनमें) मैं इनसे कौशल करना चाहती थी पर न जाने इनकी बातें सुनकर क्यों हृदय पुलकित हो रहा है। एक एक शब्द मेरे हृदयमें चुभा जाता है। (प्रगट) ठाकुर साहेब, एक दीन मजूरी करनेवाली स्त्रीसे ऐसी बातें करके उसका सिर आसमानपर न चढ़ाइये। मेरा जीवन नष्ट हो जायगा। आप धर्मात्मा हैं, जसी हैं, दयावान हैं। आज घर-घर आपके जसका बखान हो रहा है, आपने अपनी प्रजापर जो दया की है उसकी महिमा मैं नहीं गा सकती। लेकिन यह बातें अगर