पृष्ठ:संग्राम.pdf/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
पहला अङ्क

४१

जैसा भीषण पाप करना पड़ेगा। क्योंकि मेरी दशा असह्य हो गई है। मैं इसी गाँवमें घर बना लुँगा, यहीं रहूँगा, तुम्हारे लिये भी मकान, धन सम्पत्ति, जगह जमीन; किसी पदार्थकी कमी न रहेगी। केवल तुम्हारी स्नेह-दृष्टि चाहता हूँ।

राजेश्वरी--(मनमें) इनकी बातें सुनकर मेरा चित्त चंचल हुआ जाता है। आप ही आप मेरा हृदय इनकी ओर खिंचा जाता है,पर यह तो सर्वनाशका मार्ग है। इससे मैं इन्हें कटु वचन सुना कर यहीं रोक देती हूँ। (प्रगट) आप विद्वान हैं, सज्जन हैं, धर्मात्मा हैं, परोपकारी हैं, और मेरे मनमें आपका जितना मान है वह मैं कह नहीं सकती। मैं अबसे थोड़ी देर पहले आपको देवता समझती थी। पर आपके मुँहसे ऐसी बातें सुनकर दुःख होता है। मैंने आपसे अपना हाल साफ-साफ कह दिया। उस- पर भी आप वही बातें करते जाते हैं। क्या आप समझते हैं कि मैं अहीर जात और किसान हूँ तो मुझे अपने धरम-करम- का कुछ विचार नहीं है और मैं धन और सम्पत्तिपर अपने धरमको बेच दूँगी। आपका यह भरम है। अगर आपको मैं इतनी सिरिद्धासे न देखती होती तो इस समय आप यहाँ इस तरह बेधड़क मेरे धरमको सत्यानास करनेकी बातचीत न करते। एक पुकारपर सारा गाँव यहाँ आजाता और आपको मालूम हो जाता कि देहातके गँवार अपनी औरतों की लाज