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संग्राम

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(सलोनी आती है)

अरे सलोनी काकी, तुझे जमींदारकी दलहाईमें जाना पड़ेगा।

सलोनी--जाय नौज, जमींदारके मुंहमें लूका लगे, मैं उसका क्या चाहती हूँ कि बेगार लेगा। एक धुर जमीन भी तो नहीं है। और बेगार तो उसने बन्द कर दी थी?

फत्तू--जाना पड़ेगा, उसके गांव में रहती हो कि नहीं?

सलोनी--गांव उसके पुरखोंका नहीं है, हां नहीं तो। फतुआ मुझे चिढ़ा मत, नहीं कुछ कह बैठूंगी।

फत्तू--जैसे गा गा कर चक्की पीसती हो उसी तरह गा गा कर दाल दलना। बता कौन गीत गावोगी?

सलोनी--डाढ़ी जार मुझे चिढ़ा मत, नहीं गाली दे दूंगी। मेरी गोदका खेला लौंडा मुझे चिढ़ाता है।

फत्तू--कुछ तूही थोड़ी जायगी। गांवकी सभी बुढ़िया जायंगी।

सलोनी--गंगा असनान है क्या? पहले तो बूढ़ियां छांट कर न जाती थीं। मैं उमिर भर कभी नहीं गई। अब क्या बहुओंको परदा लगा है। गहने गढ़ा-गढ़ा तो वह पहनें, बेगार करने बूढ़िया जायं!

फत्तू--अबकी कुछ ऐसी ही बात आ पड़ी है। हलधरके