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संग्राम

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पूछता कि बुढ़िया कुछ खाती पीती भी है या आसीरवादोंसे ही जीती है।

राजे०--चलो मेरे घर काकी क्या खावोगी?

सलोनी--हलधर, तू इस हीरेको डिबियामें बन्द कर ले, ऐसा न हो किसीकी नजर लग जाय। हां बेटी, क्या खिलायेगी?

राजे०--जो तुम्हारी इच्छा हो।

सलोनी--भरपेट?

राजे०–हाँ और क्या?

सलोनी--बेटी तुम्हारे खिलानेसे अब मेरा पेट न भरेगा। मेरा पेट भरता था जब रुपये का पसेरी भर घी, मिलता था। अब तो पेट ही नहीं भरता। चार पसेरी अनाज पीसकर जांतपरसे उठती थी। चार पसेरीकी रोटियां पकाकर चौकसे निकलती थी। अब बहुएं आती हैं तो चूल्हे के सामने जाते उनको ताप चढ़ आती है, चक्कीपर बैठते ही सिरमें पीडा होने लगती है। खानेको तो मिलता नहीं बल-बूता कहांसे आये। न जाने उपज हो नहीं होती कि कोई ढो ले जाता है। बीस मनका बीघा उतरता था। २०) भी हाथमें आ जाते थे, तो पछाईं बैलों- की जोड़ी द्वारपर बँध जाती थी। अब देखने को रुपये तो बहुत मिलते हैं, पर ओलेकी तरह देखते-देखते गल जाते हैं। अब तो