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भूमिका

आजकल नाटक लिखने के लिये संगीतका जानना जरूरी है। कुछ कवित्व शक्ति भी होनी चाहिये। मैं दोनों गुणोंसे असाधारणतः वंचित हूँ। पर इस कथाका ढंग ही कुछ ऐसा था कि मैं उसे उपन्यासका रूप न दे सकता था। यही इस अनधिकार चेष्टाका मुख्य कारण है। आशा है सहृदय पाठक मुझे क्षमा प्रदान करेंगे। मुझसे कदाचित् फिर ऐसी भूल न होगी। साहित्यके इस क्षेत्र में यह मेरा पहला और अन्तिम दुस्साहसपूर्ण पदाक्षेप है।

मुझे विश्वास है यह नाटक रंगभूमिपर खेला जा सकता है। हां रसज्ञ "स्टेज मैनेजर" को कहीं-कहीं कुछ काट-छांट करनी पड़ेगी। मेरे लिये नाटक लिखना ही कम दुस्साहसका काम न था। उसे स्टेजके योग्य बनानेकी धृष्टता अक्षम्य होती।

मगर मेरी ख़ताओंका अन्त अभी नहीं हुआ। मैंने एक तीसरी ख़ता भी की है। संगीतसे सर्वथा अनभिज्ञ होते हुए भी मैंने जहां कहीं जी में पाया है गाने दे दिये हैं। दो ख़ताएँ माफ़ करनेकी प्रार्थना तो मैंने की। पर तीसरी ख़ता किस मुंहसे मुआफ़ कराऊं। इसके लिये पाठकवृन्द और समालोचक महोदय जो दण्ड दें शिरोधार्य्य है।

विनीत—

प्रेमचन्द