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प्रेम यह है जो जीवमात्रको एक समझे, जो आत्माकी व्यापकता- को चरितार्थ करे, जो प्रत्येक अणुमें परमात्मा का स्वरूप देखे, जिसे अनुभूत हो कि प्राणीमात्र एक ही प्रकाशकी ज्योति हैं। प्रेम उसे कहते हैं। प्रेमके शेष जितने रूप हैं सब स्वार्थमय, पापमय हैं। ऐसे कोढ़ीको देखकर जिसके शरीर में कीड़े पड़ गये हों अगर हम विह्वल हो जायं और उसे तुरत गले लगा लें तो वह प्रेम है। सुन्दर, मनोहर, स्वरूपको देखकर सभीका चित्त आकर्षित होता है, किसीका कम, किसीका ज्यादा। जो साधनहीन हैं, क्रियाहीन हैं या पौरुषहीन हैं वह कलेजेपर हाथ रखकर रह जाते हैं और दो-एक दिनमें भूल जाते हैं। जो सम्पन्न हैं, चतुर हैं, साहसी हैं, उद्योगशील हैं, वह पीछे पड़ जाते हैं और अभीष्ट लाभ करके ही दम लेते हैं। यही कारण है कि प्रेमवृत्ति अपने सामर्थ्य के बाहर बहुत कम जाती है। जारकी लड़की कितनी ही सर्व गुण पूर्ण हो पर मेरी वृत्ति उधर जानेका नाम न लेगी। वह जानती है कि वहाँ मेरी दाल न गलेगी। राजेश्वरीके विषयमें मुझे संशय न था। वहाँ भय, प्रलोभन, नृशंसता, किसी युक्तिका प्रयोग किया जा सकता था। अंतमें, यदि यह सब युक्तियाँ विफल होती तो...

(अचल सिहका प्रवेश)

अचल--दादाजी, देखिये नौकर बड़ी गुस्ताखी करता है।