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भूमिका
गोपि कहूं तौ अगोपि कहा यह,
गोपि अगोपि न ऊभौ न वैसो।
जोइ कहूं सोइ है नहि सुन्दर,
है तौ सही पर जैसो को तैसो॥६॥[१]
(२) जस कथिये तस होत नहि, जल है तैसा सोइ।
कहत सुनत सुख ऊपजे, अरु परमारथ होइ॥[२]
उत्प्रेक्षा
कामिनी कौ देह मानौ कहिबे सघन बन,
उहाँ कोऊ जाइ सुतौ भूलि के परतु है।
कुंजर है गति कटि केहरि को भय जामैं,
बेनी काली नागिनीऊ फलकौं धरतु है॥
कुचहै पहार जहाँ काम चोर रहँ तहाँ,
साधिकै कटाक्ष बान प्रात कौं हरतु है।
सुन्दर कहत एक और डर अति तामें,
राक्षस बदन बाऊँ षाऊँ ही करतु है॥१॥[३]
यहां पर उत्प्रेक्षा अलंकार उक्तविषया वस्तुत्प्रेक्षा के ढंग का है और बन की प्रायः सारी बातों के आ जाने से सांग भी कहा जा सकता है
विरोधाभास
(१)आगैं आगैं दौं जलैं, पीछैं हरिया होइ।
बलिहारी ता विरष को, जड़ काट्यां फल होई॥२॥[४]