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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१०१

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संत-काव्य


(२) जे काटौं तौ डहडहीं, सींचौं तौ कुमिलाइ।
इस गुणवंती बेलिका, कुछ गुण कह्या न जाइ ॥३॥
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(३) त्रिष्णां सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ।
जवासा के रूष ज्यूं, छण मेहाँ कुमिलाइ ॥१५॥
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(४) कुल खोयां कुल ऊबरै, कुल राख्यां कुल जाइ।
राम निकुल कुल मेंटिलै, सब कुल रह्या समाइ ॥४५॥
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विचित्र

निद्रा महि सूतौ है जौलौं। जन्म मरण कौ अन्त न तौलौं।
जागि परें तें स्वप्न समाना। तब मिटि जाइ सकल अज्ञाना ॥३५॥[]

विषम

(१) हंस श्वेत बक श्वेत देषिये समान दोऊ,
हंस मोती चुगै बक मकरी कौं बात है।
पिक अरु काक दोऊ कैसें करि जाने जाहि,
पिक अंब डार काक कंटक हि जात है।
सिंधौ अरू फटिक पषान सम देषियत,
वह तौ कठोर वह जल मैं समान है।
सुंदर कहत ज्ञानी बाहर भीतर शुद्ध,
ताकी पटतर और बातन की बात है ॥६॥[]

(२) अमिल मिल्या सब ठौर है, अकल सकल सब मांहि।
रज्जब श्रज्जब अगहगति, काहू न्यारा नाहि ॥४॥
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