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संत-काव्य
विचित्र
निद्रा महि सूतौ है जौलौं। जन्म मरण कौ अन्त न तौलौं।
जागि परें तें स्वप्न समाना। तब मिटि जाइ सकल अज्ञाना ॥३५॥[२]
विषम
(१) हंस श्वेत बक श्वेत देषिये समान दोऊ,
हंस मोती चुगै बक मकरी कौं बात है।
पिक अरु काक दोऊ कैसें करि जाने जाहि,
पिक अंब डार काक कंटक हि जात है।
सिंधौ अरू फटिक पषान सम देषियत,
वह तौ कठोर वह जल मैं समान है।
सुंदर कहत ज्ञानी बाहर भीतर शुद्ध,
ताकी पटतर और बातन की बात है ॥६॥[२]
- (२) अमिल मिल्या सब ठौर है, अकल सकल सब मांहि।
रज्जब श्रज्जब अगहगति, काहू न्यारा नाहि ॥४॥[३]
- ↑ १.० १.१ १.२ 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ ८६ (सा॰ ३), पृष्ठ ३३ (सा॰ १५), पृष्ठ २५ (सा॰ ४५)।,
- ↑ २.० २.१ 'सुन्दर ग्रंथावली', पृष्ठ १४ (३५), पृष्ठ ४६५-६ (६)।,
- ↑ 'रज्जबजी की वाणी', पृष्ठ १२२ (४)।