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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१०२

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भूमिका

  व्यतिरेक

पलटू तीरथ को चला, बीचे मिलिगे संत।
एक मुक्ति के खोजते, मिलि गइ मुक्ति अनंत ॥६४॥[]

कारणमाला

पहिले गुड़ सक्कर हुआ, चीनी मिसरी कीन्हि।
मिसरी से कन्दा भया, यही सोहागिनि चीन्हि ॥१३॥[]

क्रम

नदी वृच्छ अरु साध जन, तीनों एक सुभाव।
जल न्हावे फल वृक्ष दे, साथ लखावै नांव ॥७॥[]

परिणाम

परख बिना प्राणी दुखी, ज्यूं अंधा बिन नैन।
रज्जब धक्कै दसौ दिसि, पगि पनि नाहीं चैन ॥११॥[]

भेदकातिशयोक्ति

(१) चंद चकोरहिं प्रीति है, देखै सब संसार।
वह सौदा औरे कछू, जाहि बलि गिलै श्रंगार ॥४३॥
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(२) नाड़ी चक्रन सास मन, ब्रह्मांड पिंड नहि ठौर।
जन रज्जब जुगि जुगि रहै, सोठाहर कोई और ॥६७॥
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लोकोक्ति

(१) कौन कुबुद्धि भई घट अंतर, तूं अपनौं प्रभु सौं मन चोरै?
भूलि मैं गयौ विषया सुख मै सठ, लालच लागि रह्यौ अति थोरै॥
 

  1. 'पलटू साहब की बानी', पृष्ठ १०६ (६४)।
  2. 'दरिया साहेब (बिहार) के पद एवं साखी, पृष्ठ ५२ (१३)।
  3. 'गरीबदासजी की वाणी', पृष्ठ ७० (७)।
  4. ४.० ४.१ ४.२ 'रज्जबजी की वाणी', पृष्ठ १६७ (सा॰ ११), पृष्ठ १७ (सा॰ ४३) एवं पृष्ठ १७३ (सा॰ ६७)।,