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संत-काव्य


ज्यों कोउ कंचन छार मिलावत, लैकरि पाथर सौं नग फोरै।
सुन्दर या नरदेह अमोलिक, "तीर लगी नवका कत बोरें ॥१९॥
[१]
(२) प्रीति को रीति नहीं कछु राषत, जाति न पांति नहीं कुल गारौ।
प्रेमकै नेम कहूं नहिं दीसत, लाज न कांनि लग्यौ सब षारौ॥
लीन भयौ हरि सौं अभिअंतर, आठहूं जाम रहै मतवारौ।
सुन्दर कोउ न जानि सकै यह, "गोकुल गाँव को पैंडोहि न्यारौं" ॥१॥
[१]

ऊपर के उपमा वाले उदाहरण (सं॰ ४) में भी "जौ गुर षाइसु कांन बिंधावै" की लोकोक्ति दीख पड़ती है।

ख. शब्दालंकार

छेकानुप्रास

(१) अंतरगति अनि अनि वाणी॥
गगन गुपत मधुकर मधु पीवत, सुगति सेस सिव जाणी ॥टेक॥
त्रिगुण त्रिविध तलपत तिमरातन, तंती तंत मिलानी।
भागे भरम भोइन भये भारी, विधि विरचि सुषि जाणी।
वरन पवन अवरन् विधि पावक, अनल अमर मरै प्राणी।
रवि ससि सुभग रह भरि सब घटि, सबद सुंनिथिति मांही,
संकट सकति सकल सुख खोये, उदिध मथित सब हारे।
कहै कबीर अगम पुर पठण, प्रगटि पुरातन जारे ॥१६४॥
[२]
(२) रज्जब लौ में लाभ है, लीन हुवा रहु मांहि।
लौमें लत लागैं नहीं, और खता मिटि जाहि ॥४॥
[३]
(३) अडग सुरति आठौं पहर, अस्थिर संगि अडोल।
सो रज्जब रहसी सदा, साखी साधू बोल ॥८॥
[३]
 

  1. १.० १.१ 'सुन्दर ग्रन्थावली, पृष्ठ ४०२ (१९) एवं पृष्ठ ६४३ (१)।,
  2. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ १४४ (१६८)।
  3. ३.० ३.१ 'रज्जबजी की वाणी, पृष्ठ ४३ (४) एवं पृष्ठ (सा॰ ८),