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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१०४

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भूमिका
(४) शून्य संजीवनि, उरि अमर, रसना रहते मांहि।
जन रज्जब आँखूं अखिल, प्राणी मरै सुनाहि ॥८॥
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(५) धरनी धरकत है हिया, करकत आहि करेज।
ढरकत लोचन भरि भरी, पीया नाहिन सेज ॥१२॥
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वृत्यानुप्रास

घींच तुचा कटि है लटकी, कचऊ पलटे अजहूं रत वांमी।
दंत भया मुष के उषरे, नषरे न गये सुषरौ षर कामी॥
कंपति देह सनेह सु दंपति, संपत्ति जंपति है निस जम्मी।
सुन्दर अंतहु भौंन तज्यौ न भज्यौ भगवंत सुलौन हरामी ॥१५॥
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अनुप्रास के उक्त उदाहरणों में से छेकानुप्रास वालों में अधिकतर एक वा अनेक वर्णों की आवृत्ति एक से अधिक बार हुई है जहाँ वृत्यानुप्रास वाले उदाहरण में 'षर', 'अंपति' एवं 'अज्यौ' की आवृति, वृत्ति के अनुकूल होकर उसी प्रकार हुई है। इन आवृत्तियों में माधुर्य-गुण सूचक तथा छोटे-छोटे शब्दों को ही दुहराया गया है जिस कारण इनमें उपनारिका एवं कोमला वृत्तियाँ ही आती हैं। यमक

(१) धार बह्यौ षण धार हयौ, जलधार सह्यौ गिरिधार गिर्यौ है।
भार संच्यौ धन भारथ हु करि, भाल रयौ सिर भार पर्यौ है।
मार तप्यौ वहि मार गयौ, जम मार दई मन तौन मर्यौ है।
सार तज्यौ षुट सार पढ्यौ, कहि सुन्दर कारिज कौन सहर्यौ है ॥१२॥
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  1. 'रज्जबजी की वाणी', पृष्ठ १९३ (सा॰ ७)।
  2. 'धरनीदास की बानी', पृष्ठ ५४ (सा॰ १२)।
  3. ३.० ३.१ 'सुन्दर ग्रंथावली', पृष्ठ ४०० (१५) एवं पृष्ठ ४६० (१२)।,