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संत-काव्य


(२) बाहरि कहिये कौन सों, माहें मुशकिल काम।
अंतरि अंतर मेटिये, अंतरजामी राम॥११॥[१]

इन अवतरणों में से प्रथम के 'धार' 'भार', 'मार' एवं 'सार' शब्दों तथा दूसरे के 'अंतर' शब्द के अर्थ दुहराये जाने पर भिन्न-भिन्न हो गए हैं।

विप्सा

झिलमिल झिलमिल बरखे नूरा,
'नूर जहूर सदा भरपूरा॥१॥
रुनझुन रुनझुन अनहद बाजे।
भवन गुंजार गगन चढ़ि गाजै॥२॥
रिमझिम रिमझिम बरखै मोती,
भयो प्रकास निरंतर जोती॥३॥
निरमल निरमल निरमल नामा,
कह यारी तहँ लियो विलामा॥४॥[२]

यहाँ पर संत यारी साहब ने 'झिलझिल', 'रुनझुन', 'रिमझिम', एवं 'निरमल' शब्दों को, स्वानुभूति के उल्लास में, एक से अधिक बार कहकर अपनी आनंदमयी दशा को व्यक्त किया है जिस कारण इसमें विप्सा अलंकार का प्रयोग हो गया है।

संतों की रचनाओं में अर्थालंकारों एवं शब्दालंकारों को उदाहरण अच्छी संख्या में मिलते हैं? वे प्रायः सब कहीं उपयक्त भी ठहरते हैं, ऊपर दिये गए अवतरण अधिकतर यों ही चुन लिये गए हैं और वे केवल बानगी के रूप में हैं। अन्य उदाहरण तथा अन्य अलंकार भी पाये जा सकते हैं। रीतिकाल के प्रभाव में आकर कुछ संतों ने


  1. 'रज्जबजी की वाणी', 'पृष्ठ १०४ (११)।
  2. यारी साहब की 'रत्नावली', पृष्ठ ३ (८)।