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संत-काव्य


झूठी काया झूठी माया झूठा झूठे धंधा लाया।
झूठा हुवा झूठा जाया झूठा याकी बानी है॥
झूठा सोवै झूठा जागै झूठा भूभै झूठा भाजे,
झूठा पीछै झूठा लागै झूठे झूठी मानी है।
झूठा लीया झूठा दीया झूठा बाया झूठा पीया,
झूठा सौदा झूठै कीया ऐसा झूठा प्रानी है॥२५॥[१]

इनके अतिरिक्त संत सुन्दर दास ने कुछ ऐसे पद्यों की भी रचना की है जो अंतर्लापिका (अर्थात् जिनमें प्रश्न एवं उत्तर दोनों का एक ही में समावेश हो), वहिलपिका (अर्थात् जिनमें प्रश्नों के उत्तर बाहर से लिये जाते हैं), लोमविलोम (अर्थात् जिनमें सीधे-सीधे पढ़ने से एक अर्थ और उलटे पढ़ने से भिन्न अर्थं लक्षित होता है) और भाषासमक (अर्थात् जिनमें विविध प्रकार की भाषाओं का प्रयोग रहा करता है) की श्रेणी में गिने जा सकते हैं और जो उक्त 'ग्रन्थावली' के क्रमशः पृष्ठ ९९२-३, पृष्ठ ९९४, पृष्ठ ९९९ एवं पृष्ठ १००४ पर दिये गए हैं। संत सुन्दरदास की कविताओं में 'आद्यक्षरी' 'आदि-अंत अक्षरी' एवं 'मध्याक्षरी' के भी उदाहरण मिलते हैं जिनमें क्रमशः उनके चरणों के आचक्षरों, आदि एवं अंत के अक्षरों तथा मध्य के अक्षरों के आधार पर कोई भिन्न पद्य वा वाक्य बड़ी सरलता के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है। इनके उदाहरण ग्रन्थावली के पृष्ठ ९५३-६२ में हैं।

उलटबांसी

संत-काव्य की एक विशेषता उसमें पायी जाने वाली विविध उलट वासियों की अधिकता में दीख पड़ती है। ये उलटवांसियाँ उन रचनाओं में मिलती हैं जिनमें किसी बात को, प्रत्यक्ष रूप में, विपरीत वा ऊट-पटांग ढंग से कहा गया रहता। किंतु यदि उनमें प्रयुक्त शब्दों के गूढ़ अर्थ भी समझ लिये जाँय तो सारा रहस्य खुल जाता है और


  1. 'सुन्दर ग्रंथावली', पृष्ठ ४१७ (२५)