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भूमिका

कवि का भाव पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है। ऐसी कथन-शैली में बहुधा किसी अलंकार का विधान नहीं ढूंढा जाता और बहुत से साहित्य-मर्मज्ञ ऐसी रचनाओं को 'अधम' काव्य भी कह डालते हैं जो इनके प्रसाद गुण हीन होने के कारण, वस्तुतः यथार्थ भी माना जा सकता है। अलंकारों के अंतर्गत 'विभावना', 'विरोधाभास' और 'असंभव' इस प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिनमें क्रमशः या तो कार्य और कारण के संबंध में कोई न कोई विलक्षण कल्पना दीख पड़ती है अथवा जाति, गुण, द्रव्य वा क्रिया में कुछ न कुछ विरोध का आभास मिलता है या किसी न किसी अनहोनी बात की चर्चा की गई रहती है जिनके कारण श्रोता वा पाठक के हृदय में केवल विस्मय और कौतुहल उत्पन्न होकर ही रह जाता है। परन्तु उलटबांसियों के शब्दों में स्वभाव विरुद्ध और प्राकृतिक नियमों के प्रतिकूल घटने वाली बातों के ऐसे विपरीत उल्लेख पाये जाते हैं जिनसे उत्पन्न आश्चर्य की मात्रा अपनी अंतिम सीमा तक पहुँच जाती है और सारी रचना अर्थहीन-सी लगने लगती है। शब्दालंकारों में बहुधा गिने जाने वाले 'दृष्टिकूट' वा 'दृष्टकूट' में कुछ इस प्रकार की बातें अवश्य दीख पड़ती हैं। किंतु उसमें किये गए शब्दों के प्रयोग अधिकतर पाठकों वा श्रोताओं के विस्तृत ज्ञान वा जानकारी को लक्ष्य करते हैं जहाँ उलटबांसियों में इस प्रकार की परीक्षा के लेने का अवसर प्रस्तुत किया गया नहीं जान पड़ता। ये रचनाएँ पढ़ने अथवा सुनने वालों के उस विशेष वा पारिभाषिक ज्ञान की ही ओर संकेत करती हैं जिसका होना इन्हें समझ पाने वाले के लिए नितांत आवश्यक रहा करता है। संतों ने इनका प्रयोग, इसी कारण, विशेषतः उन बातों के वर्णनों में ही किया है जो किसी साधना वा अनुभूति से संबंध रखती हैं।

उलटबांसियों की चर्चा करते समय कुछ उन्हें 'संध्याभाषा' अथवा 'संधाभाषा' नाम से भी सूचित करते हैं। 'संध्याभाषा' का अभिप्राय उस अस्पष्ट भाषा से है जो गोधूलि बेला की भाँति, कुछ प्रकाश