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संत-काव्य

एवं कुछ अंधकार से मिश्रित रहा करती है अर्थात् जिसकी बातों को प्रत्यक्षतः कुछ न कुछ समझ लेने पर भी उसमें निहित रहस्य प्रायः अज्ञात ही रहा करता है। 'संधाभाषा' शब्द उस प्रकार की भाषा की ओर संकेत करता है जो शब्दों के अनुसार किसी प्रत्यक्ष भाव को व्यक्त करती हैं, किंतु जिसके प्रयोग करने वाले का वास्तविक उद्देश्य किसी अन्य गूढ़ भाव को सूचित करना हुआ करता पहले के अनुसार जहाँ इस प्रकार की शैली की विशेषता उसकी अस्फुटता में दीख पड़ती है वहाँ दूसरे के अनुसार वह उसके प्रयोक्ता द्वारा किसी महत्त्वपूर्ण बात को गोपनीय रखने की चेष्टा में पायी जाती है और इस कारण, पहले की दृष्टि से वह सत्काव्य में सहायता भी दे सकती हैं, किंतु दूसरे प्रकार से वह वाधक है। संध्याभाषा का प्रयोग हमें प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद की उस ऋषा में भी मिलता है जहाँ पर (१.१६४-७) [१]सूर्य का अपने पैरों (किरणों) द्वारा पृथ्वीके जल का पान करना तथा अपने शिर रूप में वरसाना कहा गया है और आत्मा का वाह्मेद्रियों द्वारा विषयों का भागरूप अंतःकारण द्वारा ज्ञानरस के (आकाश) द्वारा उसे मेघों के जिसका वास्तविक अभिप्राय लेना तथा उनके शिरोभाग रूप आनंद का लेना समझ जाता है। यह मंत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है और इसका संग्रह अथर्ववेद (९. ९.५) में भी किया गया है। ब्राह्मण ग्रंथों में उक्त संध्याभाषा का प्रयोग ऐसे प्रसंगों में किया गया प्रतीत होता है जहाँ पर अनेक बातें निरर्थक जान पड़ती है, किंतु जिनके पीछे गुप्त रूप से विद्यमान रहने वाले रहस्य का उद्घाटन पूर्वमीमांसक लोग, विविध रूपकों का सहारा लेकर, किया करते हैं।

संधाभाषा वाले उपर्युक्त उद्देश्य को लेकर व्यवहृत की जाने


  1. "इह व्रवीतु य ईमङ्ग वेदास्य यामस्य निहितं पदं देः।
    शीर्ष्णः क्षीरं दुहते गावो अस्य वब्रिं वसाना उदकं पदापुः॥७॥"