वाली शैली सर्वप्रथम, कदाचित् तांत्रिक युग में दीख पड़ी। अपनी साधनाओं को बहुधा गुप्त रखना चाहते थे और इसी कारण उन्हें उनका वर्णन ऐसी रहस्यमयी भाषा में करना पड़ता था जिसमें प्रयुक्त होने वाले पारिभाषिक शब्द, रूपकों पर आश्रित होने के कारण, गूढ़ से गूढ़तर हो जाया करते थे। गौतम बुद्ध के पालि भाषा में उपलब्ध विचारों का जब वास्तविक मर्म समझने की परिपाटी चल निकली तो इस प्रकार की शैली में और भी दुरूहता आ गई और तांत्रिक साहित्य में प्रयुक्त रूपकों का अभिप्राय समझना अत्यंत कठिन हो गया। पिछले तंत्रों की संधाभाषा के अनुसार न केवल पारिभाषिक शब्दों की ही खोज की जाने लगी, अपितु कुछ ऐसे संकेतों का रहस्य जानने की भी आवश्यकता पड़ी जिनका प्रयोग उन्हें जानबूझकर, अज्ञेय बनाने की चेष्टा में किया जाता था। इस ढंग के प्रयोगों के कतिपय उदाहरण हमें सिद्धों के चर्यापदों में भी मिलते हैं। इन सिद्धों और पीछे के संत कवियों में कई बातों की समानता है जिनमें वर्णनशैली का सादृश्य विशेषरूप से उल्लेखनीय है। यह सादृश्य भी अन्य अनेक वातों की भांति नाथ पंथियों के माध्यम द्वारा संतों तक पहुँचा हुआ जान पड़ता है। 'गोरख बानी' में संगृहीत गुरु गोरखनाथ के पदों में से लगभग आधे दर्जन[१] ऐसे हैं जिन्हें, संध्याभाषा शैली के अनुसार निर्मित उलटवासियाँ स्पष्ट रूप में दीख पड़ती हैं और 'कबीर ग्रंथावली' में संगृहीत कबीर साहब के पदों में से कम से डेढ़ दर्जन[२] में इनके उदाहरण पाये जाते हैं। गुरु गोरखनाथ ने उलटवासी के लिए 'उलटी चरचा[३] शब्द का
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