प्रयोग किया है जहाँ कबीर साहब ने उसे एक प्रकार से, उलटा वेद ही कह डाला है।[१] संत सुंदरदास ने भी इसी प्रकार उसे 'उलटी' नाम दिया है और उसे कहीं कहीं 'विपर्जय' वा 'विषर्जयशब्द' का शीर्षक देकर अपनी रचनाएं संगृहीत की हैं।[२] इन संतों के सिवाय दादूजी, रज्जबजी, शिवनारायण, तुलसी साहब, पलटू साहब, शिवदयाल आदि संतों ने भी उलटबासियाँ लिखी हैं।
संतों के लिए उलटबासियों का प्रयोग करना स्वाभाविक-सा हो गया क्योंकि एक तो वे अत्यंत गूढ़ तत्त्व और उसकी रहस्यमयी अनुभूति की चर्चा अस्फुट एवं रहस्यपूर्ण भाषा द्वारा किया करते थे। जिस कारण सभी कुछ रहस्यवादोचित हो जाता था। दूसरे, उन्हें अपनी बातें अधिकतर ऐसे सर्वसाधारण के बीच प्रकट करनी पड़ती थीं जो उनके अनुसार, सहज एवं सीधे मार्ग का परित्याग कर हास्यास्पद विडंबनाओं के फेर में पड़े रहा करते थे और जिन्हें कुछ गहराई तक सोचने का अभ्यास डालना आवश्यक हो गया था। संत-लोग उनका ध्यान अपनी उलटवासियों द्वारा आकृष्ट कर उन्हें पहले आश्चर्य में डाल देते थे और तब उन्हें समझाकर सचेत करते थे। उनकी उलटबासियों में, इसीलिए हमें ऐसी बातें भी मिला करती हैं। जो जनसाधारण वा पंडितों तक के आचरणों से संबंध रखती हैं। संतों की उलटबासियों में ऐसे प्रतीकों का प्रयोग अथवा रूपकों का व्यवहार बहुत अधिक मिलता है जिनमें प्रतिदिन के जीवन में दीख पड़ने वाली बातों का उलट-फेर दिखलाया गया रहता है और जो, इसी कारण श्रोताओं और पाठकों को एक बार स्तब्ध सा कर देते हैं। फिर भी उनका उलटवासीपन उनके शब्दों के वाच्यार्थं तक ही