सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९९
भूमिका

सीमित रहा करता है। संतों के कथन का मार्मिक भाव जान लेने पर जब हम वास्तविकता से परिचित हो जाते हैं तो वैसे रूपकों तथा प्रतीकों का औचित्य भलीभांति समझ में आ जाता है। उपयुक्त प्रतीकों के चुनाव में सभी संत सफल नहीं कहे जा सकते और इनके प्रयोगों के बहुधा फेरफार कर देने से वे कठिनाई भी उपस्थित कर देते हैं। एक ही आत्मा के लिए कहीं हंस, कहीं राजा, कहीं सुंदरी कहीं पारधी, कहीं खग और कहीं बेली जैसे शब्दों के प्रयोग किये गए हैं तथा एक ही इच्छा के लिए कहीं सुरहीं, कहीं माखी, कहीं डीवी, कहीं चील कहीं गौरी और कहीं मालिन जैसे शब्द व्यवहृत हुए हैं। ऐसे प्रयोग संतों के साधारण रूपकों और अन्योक्तियों में भी मिला करते हैं, किन्तु वहाँ कठिनाई उतनी गंभीर नहीं हो पाती। इन उलटवासियों के कारण, कभी-कभी संतों के मुख्य अभिप्राय दवे से भी रह जाते हैं और लोग उनके शब्दों के आधार पर और का और मान लेते हैं।

कबीर साहब की उलटवासियों में से एक, अद्भुतरस के उदाहरणों में, इसके पहले ही दी जा चुकी है और उसका अभिप्राय भी बतलाया गया है। उनकी अन्य तथा दूसरे संतों की उलटवासियों में से कुछ के अवतरण इस प्रकार हैं।—

(१) जीवत जिनि मारै सूवा मति ल्यावे,
मास विहूणां धरि मत आवै हो कंता॥टेक॥
उरविन बुर बिन चंच बिन, बपु विहूंना सोई।
सो स्यावज जिनि मारे कंता, जाकै रगत मास न होई।
पली पारके पारधी, ताकी धुनही पिनच नहीं रे।
ता बेली कौ ढूंढ्यों मृगलौ, ता मृग के सीस नहीं रे॥
मारचा मृग जीवता राख्या, यहु गुर ग्यॉन मही रे।
कहै कबीर स्वामी तुम्हारे मिलन कौं, बेली हूँ पर पास नहीं रे॥२१२॥[]


  1. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ १६० (पद २१२)।