पृष्ठ:संत काव्य.pdf/११३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१००
संत-काव्य

अर्थात् हे कंत (जीव)! यदि मृग (मन, ज्ञानसंपन्न होने के कारण, जीवितावस्था में हो तो उसे मत मारो (वाधितकरी) और यदि वह (माया से प्रभावित होने के कारण) मृतकावस्था में हो तो उसे मत लाओ (लाभ उठाने की आशा रखो)। किंतु फिर भी तुम बिना मांस (बुद्धि जन्य दृढभाव) लिये घर वापस भी न आओ। उस मृग (मन) कान तो छाती है, न पैर हैं और न मुख ही है; (वह शून्य रूप होने के कारण) बिना शरीर का है। उस सावज को मारकर ही क्या होगा जिसमें रक्त और मांस का अभाव हो! उस मृग (मन) को मारने वाले पारधी वा शिकारी (प्राणशक्ति) के पास किसी धनुष वा प्रत्यंचा के रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती और परली कोटि की निपुणता बाला हुआ करता है। उसके द्वारा मारा गया मृग (मन) लताओं में प्रवेश कर जाता है। सुविस्तृत आत्मबेलि की ओर अंतमुर्ख हो जाता है। उसे किसी प्रकार का शीश (आकार) नहीं रहता और वह मारे जाने पर भी सुरक्षित रहा करता है। यह गुरूपदेश द्वारा उपलब्ध ज्ञान के क्षेत्रका विषय है। कबीर का कहना है कि परमात्मान् जिस तुम्हारी बेलि (आत्मवेलि) के भीतर उस मृगरूपी मन को प्रविष्ट होना है उसमें (प्रकृति के) पत्ते नहीं हैं।

यहाँ पर यह बात भी उल्लेखनीय है कि इस उलटवासी वाले ही मृग, पारधी जैसे कुछ प्रतीकों के प्रयोग गुरु गोरखनाथ ने भी अपने एक पद में किये हैं जो कई दृष्टियों से इसका आधार-सा प्रतीत होता है। उसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं—

"आई सौ भील पारधी हाथ नहीं, पाई प्यंगुलो मुष दाँत न काहीं।
हयों हयों मृघलौ धुणहीन नहीं, घंटा सुरतिहाँ नाद नाहीं॥२॥
भीलढ़ै तिहाँ ताणियों वांण, मनहीं मूघलों वेधियों प्रमाण।
हयौ हयौ मृगल वेधियो वाँण, घुणही वांण न थी सरताणं॥३॥