कैसी भारती होइ भवषंडना तेरी आरती।
अनहता सबद बार्जत भेरी॥रहाउ॥[१]
इस पद्यांश में, आकाशमयी थाली में सूर्य एवं चन्द्रमा के दो दीपकों की कल्पना करते हुए, अगणित तारिकाओं के समूह को उस पर जड़े हुए मोतियों का प्रतीक ठहराया है और सुगंधि के लिए पवन तथा चंदर के लिए वायु के साधन प्रदर्शित करते हुए कहा है कि बनों के अंतर्गत जितने भी वृक्ष पुष्पित हैं वे सभी हमारें इष्टदेव परमात्मा के ही उपचार में मग्न हैं। अनाहत शब्द सदा भेदी का काम करता हैं और इस प्रकार उसके लिए अन्य किसी ढंग की आरती की आवश्यकता कभी हो ही क्या सकती है? यहाँ पर कवि की कल्पना के अनुसार नभोमंडल पर दृष्टिपात करते ही उसके भावगांभीर्य की भी कुछ न कुछ अनुभूति होने लगती है और प्रकृति का एक भव्य एवं मनोरम रूप भी हमारे सामने आ उपस्थित हो जाता है।
कबीर साहब ने भी, इसी प्रकार, आत्म विस्मृति के कारण इतरतः भटकने वाले जीव के मोहांधकार में पड़ कर भयभीत होने की अनुभूति की तीव्रता का वर्णन करते समय, भादो मास की भयावनी रात का "एक चित्र अंकित किया है जो इस प्रकार है:—
(२) गहन व्यंद कछू नहीं सूझै, आपन गोप भयौ आगम बूझै।
भूलि परयौं जीव अधिक डराई, रजनी अंधकूप ह्वै जाई,॥
माया मोह उनवै भरपूरी, दादुर दामिनि पवनां पूरी।
तरियै वरिषै अखंड धारा, रैनि भामनी भया अंधियारा॥[२]
अर्थात् घनी बूदों के कारण कहीं पर कुछ सूझ नहीं पड़ता। अपने आप भूला हुआ मनुष्य मार्ग ढूंढने के लिए भटकता फिर रहा है और