अत्यन्त भयभीत है। रात बहुत अंधेरी हो गई है, मेघ बरसने के लिए ऊपर से झुक आये हैं, मेंढक वोल रहे हैं, बिजली कौंध रही है और हवा वेग से बह रही है। बादलों की तड़प के साथ-साथ अनवरत वृष्टि भी होती जा रही है और अंधेरी रात भयावनी बन गई है।
संत सुन्दरदास ने इसके विपरीत सुहावने प्रातःकाल का वर्णन इस प्रकार किया है जो 'पूरबी भाषा बरवै' के अंतर्गत आता है:—
(३) अंधकार मिटि गइले ऊगल भान,
हंस चुगै मुक्ताफल सरवर मान।
सहज फूल फर लागत बारह मास,
भंवर करत गुंजारनि विविध विलास।
अंब डाल पर बैसल कोकिल कीर,
मधुर मधुर धुनि बोलइ सुखकर सीर।
सबकेहु मन भावत सरस बसंत,
करत सदा कौतूहल कामिनि कंत।[१]
संत दरियादास (बिहार वाले) ने भी बसंत का वर्णन करते समय कुछ इसी ढंग का चित्र खींचा है जैसे,
(४) सोइ बसंत खेलहिं हंसराज, जहाँ नभ कौतुक सुरसमाज।
अछै विरिछ तहाँ द्रुम पाल, साखा सघन लपटि जात॥
बेलि चमेली विविध फूल, सोधा अग्र गुलाब मूल।
भँवर कँवल में भाव भोग, इत्यादि।[२]
अर्थात् उस बसंतकाल में हंसराज क्रीड़ा कर रहा है और आकाश में देवता लोग चकित हो रहे हैं। वहाँ पर पत्तों एवं टहनियों से सुसज्जित सुन्दर वृक्षों की घनी शाखाएं एक दूसरे के साथ आलिंगन कर रही है। बेला, चमेली जैसे अनेक प्रकार के फूल फूल रहे हैं और श्रेष्ठ गुलाबों की