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भूमिका

जड़ें तक सुगंधित हो उठी हैं। भंवरा कमल से लगा हुआ उसका उपयोग कर रहा है।

संत गुलाल साहब ने अपने पति के साथ सावन की रात में क्रीड़ा करने वाली नायिका के रूपक द्वारा, स्वानुभूति का चित्र यों खींचा है—

(५) हरि संग लागत बूंद सोहावन॥टेक॥
चहुँ दिसि तें घन घेरि घटा आई, सुन्न भवन उरपावन।
बोलत मोर सिखर के ऊपर, नाना भांति सुहावन॥२॥
आनंद घट चहुं ओर दीप बरै, मानिक जोति जगावन।
रीझ रीझ पिया के रंग राते, पलकत चँबर डोलावन॥३॥[१]

यहाँ पर सावन की कष्टदायक बूंदें भी सुहावनी लगती है, चारों ओर से घिरकर आयी हुई, शून्य भवन को डरपाने वाली घटाओं का कुछ भी प्रभाव नहीं और शिखर के ऊपर से बोलने वाले मोरों की पुकारें भी भली जान पड़ रही हैं। जब मिलन के समय चारों ओर घर के भीतर मणियों के दीपक जगमगा रहे हैं और प्रियतम के संयोग में आह्लादित बने रहने के कारण, अपनी पलकें तक उसकी सेवा में लगी हुई हैं तब सावन की भयावनी रात का भी सुहावनी बन जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं।

इस प्रकार संतों की रचनाओं में जो कुछ प्रकृति-चित्रण की झलक मिलती है वह अधिकतर प्रतीकों के आलंबन पर ही प्रस्तुत की गई है। नग्न एवं निरावृत प्राकृतिक दृश्यों के सौंदर्य का प्रभाव उन पर पूर्ण रूप से पड़ा हुआ नहीं जान पड़ता। वे अपने सर्वात्मवाद की दृष्टि से सब कुछ को एकमात्र परमात्मतत्त्व से ओतप्रोत माना करते हैं और उससे भिन्न कोई वस्तु वस्तुतः उन्हें दीख नहीं पड़ती। उनके अनुसार तो यह सारा का सारा दृश्य समूह केवल माया का पसारा है और हमारे भ्रांत


  1. 'गुलाब साहब की बानी', पृष्ठ १३२ (शब्द ६)।