मन की निरी काल्पनिक सर्जना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। अतएव, जब सुन्दरदास के शब्दों में उन्हें—
मनही के भ्रम तें जगत सब देषियत,
मनही कौ भ्रम गये जगत विलात है।[१]
के सिद्धान्त में विश्वास करना है तो फिर उनके लिए प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूति का महत्त्व प्रायः कुछ भी नहीं रह जाता। वे जब कभी उस पर दृष्टिपात करते हैं तो उसे अपने रंग में रंगी हुई हो पाया करते हैं।
संगीत प्रेम
संतों ने जो कुछ अनुभव किया उसमें उन्होंने अपने आपको घुला-मिला सा दिया और उसमें वे सदा तल्लीन बने रहते रहे। उनकी अनुभूति की अभिव्यक्ति इसी कारण, उनके अंतस्तल से हुआ करती थी और उसमें भावगांभीर्य के साथ-साथ एक प्रकार की स्वच्छंदता और मस्ती भी बनी रहती थी जो किसी जन्मसिद्ध गायक में पायी जाती है। संत लोगों का किसी न किसी रूप में गायक वा भजनीक होना जनश्रुतियां और उल्लेखों द्वारा भी सिद्ध है। संत नामदेव के लिए कहा जाता है कि वे पंढरपुर में तथा अपनी यात्राओं में भी सदा भजन गाते रहा करते थे और गुरु नानकदेव का भी अपने साथी मर्दाना के साथ किसी वाद्ययंत्र के सहारे अनेक स्थलों में गाते फिरना उनकी जीवनियों में लिखा पाया जाता है। दादू पंथ के गरीबदास एवं वषनाजी की गणना अच्छे संगीतज्ञों में की जाती है और बाबरी पंथ के प्रायः सभी प्रमुख संतों के चित्र गायकों के ही रूप में अंकित किये गए दीख पड़ते हैं। इसके सिवाय संत जयदेव एवं नामदेव से लेकर इधर के संतों तक के पदों के संग्रह सदा विविध रागों में विभक्त होकर ही प्रकाशित होते आए हैं और इसकी परंपरा सिद्ध युग से ही चली आ रही हैं।
- ↑ 'सुन्दर ग्रंथावली', पृष्ठ ४५३ (स॰ २५)।