सिद्धों के पदों को 'चर्यागीति' कहा जाता और उनका कभी-कभी उनमें 'गाइउ' जैसे शब्दों का प्रयोग का होना भी यही सूचित करता है कि उस प्रकार की रचनाएं बहुधा गायी जाया करती थीं और इस कारण, उनके संग्रह भी रागों के अनुसार ही किये जाते थे।
परन्तु केवल इतने से ही संतों की सभी रचनाओं का संगीत शास्त्रानुसार निर्मित होना भी प्रमाणित नहीं हो जाता। उनके पदों की रचना का आदर्श मूलतः चाहे जो भी रहा हो इन सभी का स्वर, लय, ताल आदि के अनुसार शुद्ध भी होता सिद्ध नहीं किया जा सकता संगीतशास्त्र के नियमानुसार जो गीत निर्मित होते हैं उनके रूप कतिपय बाह्य बंधनों द्वारा जकड़े हुए से जान पड़ते हैं। उनमें भावों की अपेक्षा उनके गेयत्व की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया प्रतीत होता है। किंतु संतों के पदों के संबंध में यह भी बात नहीं है। संतों ने जितना प्रयास अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए किया है उतनी दूर तक वे उसकी भाषा वा गेयत्व के लिए नहीं गये हैं। अतएव संतों के पदों का गेय गीतों की अपेक्षा गीति काव्यों की श्रेणी में गिना जाना कदाचित् अधिक उचित होगा। संत लोग अधिकतर अशिक्षित रहे और शास्त्रीय बंधनों की उन्होंने सभी प्रकार से उपेक्षा भी की थी। पदों की रचना उन्होंने इसी कारण, किन्हीं पिंगलशास्त्र वा संगीत शास्त्र के नियमों का ठीक-ठीक अनुसरण कर के नहीं की। उनके लिए तो सब कहीं प्रचलित उन्मुक्त लोक गीतों का ही संकेत पर्याप्त था। सिद्धों एवं नाथों की पद-रचना के आदर्श में उन्हें एक स्थूल आधार भी मिल गया। तदनुसार संत कबीर साहब से लेकर बहुत पीछे तक के संतों ने अपनी रचनाएं अधिकतर स्वच्छंद रूप से हो की और काव्य एवं संगीत के कठोर नियमों के पालन की ओर उनका ध्यान बहुत कुछ रीतिकाल के समय से आकृष्ट होने लगा।
संतों की रचनाएं लगभग सभी प्रसिद्ध रागों के अंतर्गत संगृहीत पाई