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भूमिका

किसी प्रकार के बंधनों का विचार करने की परंपरा कभी नहीं रहती आई है। गेय पदों के बहुधा पाँच अंग माने जाते हैं जो क्रमशः उद्रह, मेलापक, ध्रुव, अंतरा और आभोग के नाम से प्रसिद्ध हैं और जिन्हें कभी-कभी केवल स्थायी, अंतरा, संचारी और आभोग नाम के चार अवयवों द्वारा भी प्रकट किया जाता तथा जो किसी-किसी गाने में (जैसे प्रायः ख्याल और टप्पे में) केवल प्रथम दो तक ही दीख पड़ते हैं। किंतु संतों की पद-रचना के लिए कोई इस प्रकार का नियम लागु नहीं। उनके कोई-कोई पद एक से अधिक पृष्ठों तक में छपे हुए पाये जाते हैं और उनमें किसी एक ही भावविशेष की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की जगह साधनाओं के विवरण, रूपकों के विस्तार तथा आदर्शों के दृष्टांत इतनी प्रचुर मात्रा में आ जाते हैं कि उनका रूप दोहे चौपाइयों वाले साधारण वर्णनों से भिन्न नहीं जान पड़ता।

संतों की रचनाओं में पाये जाने वाले उक्त प्रकार के दोष, उनके रूप एवं शैली से कहीं अधिक उनके विषय पर ही ध्यान देने के कारण, आ गए हैं और इसमें कई संतों के बहुधा अशिक्षित रहने के कारण कुछ और भी सहायता मिल गई है। शिक्षित एवं अभ्यस्त संतों ने जब कभी इस ओर ध्यान दिया है तब उनके पद अथवा अन्य रचनाएं भी बहुत शुद्ध एवं सुधरी दशा में बन पड़ी हैं। संतों की रचनाओं के अभी प्रामाणिक संस्करण भी बहुत नहीं मिलते और इसके कारण हमारे सामने उन्हें परखते समय, एक दोहरी कठिनाई भी आ जाती है। सिद्धहस्त एवं प्रतिभाशाली संतों की जो कुछ शुद्ध रचनाएं प्रकाश में आ चुकी हैं उनमें उनके संगीत ज्ञान का भी अच्छा परिचय मिलता है। केवल पदों अथवा अन्य ऐसे गानों में ही नहीं, अपितु उनके सवैयों, अष्टकों, रेखतों आदि तक में भी एक ऐसा प्रवाह एवं माधुर्य दीख पड़ता है जो सुनिर्मित और सुव्यवस्थित पदों में ही संभव है तथा, जिसके कारण, ऐसी रचनाएं गायी भी जा सकती हैं। संतों के लिए संगीत, वस्तुतः प्रारंभिक काल से ही अपना आवश्यक