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संत-काव्य

एवं प्रिय साधन रहता आया है और उसके महत्व को वे सदा पहचानते भी रहे हैं। उसे किसी शास्त्रीय ढंग से अपना न सकने पर भी उसका प्रयोग वे स्वच्छन्द रूप से करते आए हैं और इसमें वे सफल भी कहे जा सकते है। इसके सिवाय उनकी अनेक रचनाएं गीति काव्य की कोटि में भी आती है और इस दृष्टि से भी उनकी संगीतप्रियता पर विचार किया जा सकता है।

छंदः प्रयोग

संतों की रचनाएँ पहले पद्यात्मक रूप में ही होती रहीं और उनके साधारण से साधारण उपदेश, और कदाचित् उनके पत्र-व्यवहार तक, सदा उसी प्रकार चलते रहे। गद्य लेखन की प्रथा का अनुसरण उन्होंने बहुत पीछे आकर किया जब हिंदी में गद्यमयी टीकाएं लिखी जाने लगीं और वार्ताओं जैसी विवरणात्मक रचनाओं का भी आरंभ हो गया। अब तक के उपलब्ध संत साहित्य के आधार पर केवल इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि यह समय विक्रम की १९वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध वा उत्तरार्द्ध रहा होगा। जो हो, पहले के संत, अपनी रचना करते समय, पद्य के प्रचलित आदर्शों को अपने सामने रख लिया करते थे और उनके छंद आदि की सूक्ष्म बातों पर विचार किये बिना भी, अपना काम चला लेते थे। उनके पदों की रचना कभी-कभी एक से अधिक छंदों के सम्मिश्रण से हो जाया करती थी और उनकी साखियों में भी दोहों के अतिरिक्त अन्य छंद रहा करते थे। परन्तु इन बातों की छानबीन करना वे आवश्यक नहीं मानते थे और न पिंगल के ज्ञान को वे कभी महत्त्व देते थे। परंतु जब कवि केशवदास (सं॰ १६१२–१६७४) जैसे हिन्दी कवियों ने इस ओर ध्यान देना आरंभ किया और विविध छंदों के प्रयोग की पद्धति चल निकली तथा 'रामचन्द्रिका' जैसी एकाध पुस्तकें केवल पिंगल ज्ञान के प्रदर्शनार्थ ही लिखी जाने लगीं तो इसका प्रभाव