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भूमिका

उन पर भी पड़े बिना नहीं रह सका और रीतिकालीन संतों ने इस ओर प्रवृत्त होना अपना एक कर्तव्य सा मान लिया तदनुसार गुरु अर्जुन देव (सं॰ १६२०–१६६३) एवं मलूकदास (सं॰ १६३१–१७३९) के समय के लगभग पदों, साखियों एवं रमैनियों के अतिरिक्त अन्य प्रयोग भी चल पड़े।

यह समय मुग़ल सम्राट् अकबर के शासनकाल का था जबकि देश में शांति एवं समृद्धि थी और महाराजों एवं नवाबों के यहाँ भी दर्बारों की व्यवस्था चल रही थीं जिनमें कवियों और गुणियों का आदर-सम्मान होता था। अतएव मनोरंजन तथा कलाप्रदर्शन के लिए काव्य-रचना में प्रवृत्त होना, साधारणतः शिक्षित कहे जाने वाले लोगों के लिए भी, स्वाभाविक सा हो गया था। फलतः काव्य-कला में योग्यता प्राप्त करने के लिए पुराने संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन भी होने लगा और इस प्रकार हिंदी में भी साहित्यशास्त्र की उन्नत एवं समद्ध करने की ओर बहुत से पंडित कवियों का ध्यान आकृष्ट हुआ। रस, अलंकार, छंद जैसे साहित्यशास्त्र के अंगों का जैसे-जैसे अनुशीलन व विवेचन होता गया वैसे-वैसे उनके उचित प्रयोगों में भी वे लोग दत्तचित्त होते गए। इस प्रकार के प्रयोग कभी-कभी इस उद्देश्य से भी किये जाने लगे कि उक्त अंगों के साधारण से साधारण रूपों के भी विवरण सबके सामने उपस्थित कर दिये जायें। रस-संबंधी भाव-विभावादि एवं नायक-नायिका भेद, अलंकार-संबंध नामों का विस्तार तथा भेद-अभेद तथा छंद संबंधी गुण, मात्रा एवं यति आदि को प्रदर्शित करने के लिए उनके उदाहरणों की संख्या में अधिकाधिक वृद्धि की जाने लगी और इस प्रकार हिंदी के साहित्यशास्त्र की समृद्धि के साथ-साथ उसकी कलात्मक रचनाओं का भी निर्माण एवं प्रचार बड़े वेग के साथ आरंभ हो गया।

संत कवि सुंदरदास, रज्जबजी जैसे पंडित एवं निपुण कलाकारों का आविर्भाव उपर्युक्त वातावरण के ही प्रभाव में हुआ था। वे अपने गुरु