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संत-काव्य

अथवा गुरु भाइयों के संपर्क में रहा करते थे और उनके साथ साधना एवं सत्संग में निरत रहते थे। किंतु अन्य सभी संतों की भांति पद्य-रचना में प्रवृत्त होते समय, वे अपने समय की नवीन साहित्यिक प्रवृत्तियों से अपने को बचा नहीं पाते थे। संत सुन्दरदास ने दर्शन और साहित्य का विशेष अध्ययन काशीपुरी में जाकर किया था और काव्य कला में भी भलीभाँति निपुण हो गए थे। इस कारण उनकी पद्यरचना का आदर्श न केवल अपने भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति तक ही सीमित रहा अपितु वे अपने कथन को सभी प्रकार से आकर्षक, चमत्कारपूर्ण एवं शुद्ध तथा शास्त्रीय ढंग से प्रकट किया हुआ भी सिद्ध करना चाहते थे। उन्होंने काव्य का प्राण 'हरिजस' को अवश्य बतलाया था, किंतु इसके साथ ही उसका 'नखशिख शुद्ध' होना भी वे बहुत आवश्यक समझते थे। अक्षर, मात्रा अथवा दोषपूर्ण अर्थ वाली कविता, उनके अनुसार, कभी अच्छी नहीं लगा करती और उसे सुनते ही काव्य-रसिक लोग उठकर चल देते हैं[१]। अतएव काव्य को सर्वप्रिय बनाने के लिए उसे सर्वांगतः शुद्ध तथा दोष-रहित रूप देना भी अनिवार्य है। संत सुन्दरदास ने इसीलिए गणागण विचार, दग्धाक्षर विचार, काव्य दोष, संख्यावाची शब्दादि के विषय में भी अपने सिद्धान्त प्रकट किये हैं और अपनी रचनाओं के अंतर्गत लगभग पचास-साठ प्रकार के छोटे-बड़े छंदों का उदाहरण भी प्रस्तुत किया है।

इसमें संदेह नहीं कि संत सुंदरदास संतों में सबसे अधिक निपुण एवं काव्यकला-मर्मज्ञ थे। उनके छंदों में त्रुटियों का प्रायः सर्वथा अभाव दीख पड़ता है और उनकी भाषा भी व्याकरण के अनुसार शुद्ध और सुवरी हुई पायी जाती है। उन्होंने रस एवं अलंकार के प्रयोगों में भी निपुणता दिखलाई है जैसा कि इसके पहले उद्धृत किये गए उनके अनेक उदाहरणों द्वारा प्रमाणित होता है, रज्जबजी संत सुन्दरदास के ही


  1. दे॰ 'नखशिख शुद्ध कवित्त' आदि जो इसके पूर्व उद्धृत किया जा चुका है।