गुरु भाई थे और इनसे वय में बड़े भी थे। रीतिकालीन परंपरा का प्रभाव इनकी रचनाओं पर भी पाया जाता है और सांसारिक नीति एवं व्यवहार के संबंध में ये सुन्दरदास से भी अधिक सफल जान पड़ते हैं। किंतु राज्जबजी की रचनाओं में अभी प्राचीन परंपरा के प्रति मोह की मात्रा कुछ अधिक दीख पड़ती है। उन्होंने साखियाँ बहुत बड़ी संख्या में लिखी हैं और इस विषय में वे सिवाय कबीर साहब के अन्य सभी संतों से बढ़-चढ़कर हैं। सुन्दरदास के सवैये और कवित्त, उसी प्रकार बहुत अच्छे उतरे हैं और इनकी रचना में कदाचित् वे भी बेजोड़ कहे जा सकते हैं। इन छंदों के अतिरिक्त कुछ और भी ऐसे हैं जिनमें भिन्न-भिन्न संतों ने अपनी विशेष योग्यता प्रदर्शित की है। उदाहरण के लिए कुंडलियाँ पलटू साहब और दीनदरवेश, भुलना में यारी, छप्पय में भीषजन, अरिल्ल में वार्जिद तथा रेखते में गरीबदास अधिक सफल जान पड़ते हैं। यों तो अरिल्ल, भूलने एवं रेखते में हम पलटू साहब को भी किसी से कम योग्य कहना उचित नहीं समझते। इसके सिवाय कवित्त एवं सवैये का सफल प्रयोग करने वाले संतों में संत रज्जबजी तथा गुरु गोविन्द सिंह के नाम भी बड़े सम्मान के साथ लिये जा सकते हैं।
पदों, साखियों एवं रमैनियों के पीछे जिन छंदों का अधिक प्रचार संत-काव्य में पहले-पहल आरंभ हुआ वे सवैया, कवित्त, छप्पय, अरिल्ल, कुंडलियाँ और त्रिभंगी थे और इनके अतिरिक्त वरवै जैसे एकाथ छंदों के भी प्रयोग संत सुन्दरदास जैसे कवि करने लगे। सुन्दरदास ने सवैया छंद के किरीट, वीर, केतकी आदि कई रूपों के प्रयोग किए हैं जिनमें, एक प्रकार से, इन्दव एवं हंसाल की भी गणना की जा सकती है। इनके 'सवैया' अथवा 'सुन्दर विलास' नामक ग्रंथ के अंतर्गत मनहर (कवित्त) और कुंडलिया छंदों के भी अनेक प्रयोग मिलते हैं और उनकी संख्या कम नहीं कही जा सकती, किंतु सवैयों का महत्त्व अधिक होने के कारण, रचना का नाम उन्हींके अनुसार दिया गया जान पड़ता है। त्रिभंगी छंद