के प्रयोग रज्जबजी एवं सुंदरदास ने सफलतापूर्वक किये हैं। सुंदरदास ने वरवै छंद को पूरबी भाषा में लिखने की चेष्टा की है और उसमें शृंगाररस के भाव भी भरे हैं, किंतु उसमें तुलसीदास वा रहीम की सरलता नहीं ला सके हैं। संत भीषजन ने छप्पय छंद में अपनी पूरी 'बावनी' की रचना कर डाली है और इसी प्रकार वार्जिद एवं पलटू साहब ने भी अपने अरिल्ल एवं कुंडलियें लिखे हैं और इन सभी ने अपनी इन रचनाओं में इतनी सुंदर सूक्तियाँ कहीं हैं कि वे लोकप्रिय हो गई हैं। गुरु रामदास एवं गुरु अर्जुनदेव ने रीतिकाल के प्रारंभिक दिनों में एक प्रकार के 'छंत' नामक छंद के प्रयोग किये थे, किंतु उसके विषय में पूरा परिचय नहीं मिलता।
विक्रम की १८वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में, किसी समय से रेखता नामक छंद का प्रयोग संत-काव्य में होने लगा। रेखता शब्द फ़ारसी भाषा का है और इसका अर्थ कदाचित् एक प्रकार के गाने संबंध में लगाया जाता है। यह नाम पीछे इतना लोकप्रिय गया कि इसे कई उर्दू कवियों ने उर्दू भाषा अथवा उर्दू काव्य का पर्याय-सा मान लिया जैसा कि,
"रेखती के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब,
कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था॥"[१]
जैसी पंक्तियों से प्रकट होता है और इस नाम का एक उर्दू छंद भी प्रचलित हो गया जिसे दूसरे शब्द में कभी-कभी 'ग़जल' भी कह दिया जाता है। किंतु उर्दू का उक्त रेखता छंद, बहर के अनुसार, 'मफ़ऊल फ़ायलातुन मक़यूल फ़ायलातून' के आधार पर चौबीस मात्राओं का होता था और वह हिन्दी के 'दिग्पाल' नामक छंद का ही एक अन्य रूप था जहाँ संतों वाले उस रेखता छंद में ३७ मात्राएं हुआ करती थीं। यह रेखता छंद हिंदी के छंदों में से 'हंसाल' के साथ बहुत मिलता-जुलता है और यह एक प्रकार से उसीका ही उर्दू रूप भी कहा जा सकता है। इस छंद में २० एवं १७ मात्राओं पर विराम हुआ करता है और इसे सवैया छंद का ही एक
- ↑ 'दीवाने ग़ालिब' (रामनारायण लाल, प्रयाग), पृष्ठ १७।