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भूमिका

भेद कभी-कभी मान लिया जाता है जो उचित नहीं जान पड़ता। रेखला को संत-काव्य के अंतर्गत कहीं-कहीं 'रेखता राग' के नाम से भी अभिहित किया गया है जो उपर्युक्त 'गाने' का ही बोध करता हुआ प्रतीत होता हैं।

इधर के अधिक प्रयुक्त होने वाले अन्य छंदों में झूलना का भी नाम लिया जा सकता है जिसके उदाहरण संत सुन्दरदास के समय से ही मिलत आ रहे हैं। इस छंद में भी ३७ मात्राएं होती हैं जिस कारण इसकी भी गणना मात्र दंडों में की जाती है। किंतु इस छंद के शुद्ध प्रयोग संतों की कविताओं में बहुत कम देखने को मिलते हैं और पलटू साहब एवं तुलसी साहब को छोड़कर अन्य लोगों ने इसकी अधिक रचना भी नहीं की है। कुछ लोग इस छंद को भी सवैये का ही एक भेद मानते हैं किंतु इस बात को और बहुत से साहित्य स्वीकार नहीं करते। यह छंद उपदेश तथा चेतावनी के लिए बहुत उपयुक्त होता है जहाँ रेखते का उपयोग अधिकतर उद्बोधन के लिए किया जाता है। अरिल्ल छंद का नाम तुलसी साहब के रचना संग्रहों में 'अरियल' दिया गया है। यह छंद भी संतों में बहुत लोकप्रिय बना आया है और इसका विशेष उपयोग उन्होंने वस्तु-स्थिति के दर्शनों में समझा है। संतों की साखियों में अनेक छोटे-छोटे छंदों का प्रयोग बहुत पहले से ही होता आ रहा था और ध्यानपूर्वक देखने पर कबीर साहब तक की साखियों में, दोहों और सोरठों के अतिरिक्त, हरिपद, श्याम उल्लास, दोही, छप्पय, चौपाई जैसे अन्य छंदों प्रयोग मिल जाते हैं। किंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने इन्हें जानबूझ कर छंदों की विविधता दिखलाने के लिए नहीं प्रयुक्त किया था और न वे इनके भेदों और उपभेदों से भलीभांति परिचित ही थे।

भाषा

संतों की भाषा के विषय में चर्चा करते समय अनेक बातों पर विचार करने की आवश्यकता पड़ जाती है। एक तो वे सुदूर एवं विभिन्न क्षेत्रों के निवासी थे जहाँ पर विविध बोलियों के कारण उनकी भाषा के स्वरूप