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भूमिका

त्याग कर देता कि उसमें बहुत कुछ संमिश्रण हो गया है और वह किन्हीं निश्चित और प्रचलित नियमों का अनुसरण नहीं करती, किसी उर्वर क्षेत्र के लाभों से वंचित रह जाने के समान हैं। भाषा विज्ञान संबंधी सत्य के अन्वेषकों के लिए तो यह विषय मनोरंजक होने के साथ ही महत्त्वपूर्ण भी हो सकता है। संतों का जीवन सदा निष्कपट तथा छलहीन रहा और उनकी विचारधारा का मूल स्रोत उनकी गहरी स्वानुभूति से संलग्न था। अतएव जो कुछ भी भाव उन्होंने व्यक्त किये वे प्राकृतिक निर्भरवारा की भांति फूटकर स्वाभाविक साधनों द्वारा ही प्रकट होते दीख पड़े। संतों ने सर्वप्रथम स्वभावतः उसी माध्यम को स्वीकार किया जिसमें वे अपने बचपन से अभ्यस्त थे अथवा जिससे उनके अनुयायी पूर्णतः परिचित जान पड़े और उसका भी प्रयोग उन्होंने भरसक किसी अकृत्रिम एवं उपयुक्त रूप में ही करने की चेष्टा की। उन्होंने साधारण से साधारण कोटि के प्रतीकों के प्रयोग किये, अति प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों से काम लिया और अपने अत्यंत गंभीर नियम का प्रतिपादन करते समय भी, अपनी उसी भाषा का व्यवहार किया जिस पर उनका कुछ अधिकार रहा। आवश्यकता के अनुसार उनके कथनों में अपरिचित शब्दों के भी प्रयोग हो जाते थे जिन्हें वे अपने रंग में रंग लेते थे और गंभीर भावों की अभिव्यक्ति बहुधा अपूर्ण वाक्यों वा वाक्यांशों में हो हो जाया करती थी जिन्हें वे पर्याप्त समझते थे। फिर भी उन्होंने उन्हें जानबूझ कर विकृत वा अंगहीन नहीं बनाया और न किसी तुक वा यति की मर्यादा रक्षा के फेर में पड़कर, अथवा किसी शब्द के अर्थ में दुरूहता लाने के लिए उसे गढ़-छोल कर उन्होंने कोई अपूर्व रूप ही प्रदान किया। संतों की अभिव्यक्तियों के पीछे जैसे आनन्द का कोई उत्स काम करता हुआ प्रतीत होता है जिस कारण उनके अल्हड़ प्रयत्न भी कुछ अनोखे परिणाम लाते दीख पड़ते हैं और इस प्रकार उनके टूटे-फूटे शब्दों तथा अटपटी बानियों में भी हमें स्वाभाविकता की शक्ति और अकृतिमता के सौंदर्य का आभास