साहब तथा बघेली क्षेत्र के धर्मदास की कुछ रचनाओं को हम भोजपुरी में पाते हैं वहाँ भोजपुरी क्षेत्र के कमाल के कुछ पदों को खड़ी बोली तथा दूसरों को मराठी प्रभावित राजस्थानी में देखते हैं।
एक बात जो कई प्रसिद्ध संतों की रचनाओं में विशेष रूप से लक्षित होती है वह फारसी भाषा के शब्दों एवं क्रियापदों तक के प्रयोग हैं जो कभी-कभी स्वतंत्र रूप से, किंतु अधिकतर उर्दू भाषा के साथ मिश्रित रूप में मिलते हैं। कबीर साहब की रचनाओं के संग्रह-ग्रंथ 'कबीर ग्रंथावली' का २५८ वां पद तथा उसीका २५७ वां पद भी, जो 'आदिग्रंथ' में भी राग-तिलंग के शीर्षक से उनका प्रथम पद होकर आया हूँ फारसी भाषा में रचित ऐसे पदों के उदाहरण में दिये जा सकते हैं। इसी प्रकार दादू दयाल के पदों के संग्रह में से उसका ९१वाँ पद तथा उसमें संगृहीत कम से कम १६ साखियाँ, 'मलूकदास की बानी' का २१ वो शब्द, धरनीदास का 'अलिफनामा', पलटू साहब के कुंडलियें (सं॰ २१५ और २५८) तथा 'रदास जी को वानी' का ६० वां पद भी ऐसे ही उदाहरणों में दिये जा सकते हैं। पता नहीं ये सभी संत फारसी भाषा से अभिज्ञ भी थे वा नहीं और यदि उससे उन्हें कुछ परिचय भी था तो वे पद्य रचना भी कर सकते थे। उर्दू भाषा के क्रिया पदों के साथ-साथ फ़ारसी, अरबी एवं तुर्की भाषा के शब्दों के प्रयोग कर ले जाना और बात है। फ़ारसी भाषा के क्रिया पदों के भी शुद्ध प्रयोग जहां-जहाँ पर उक्त उदाहरणों में मिलते हैं वहाँ इस विषय का प्रश्न एक समस्या का रूप ग्रहण कर लेता हूँ। संतों में बहुत कम ऐसे थे जो फ़ारसी भाषा का पूर्ण ज्ञान रखते थे और जो इसके माध्यम से कविता करने में भी सिद्धहस्त थे।
संतों की बहुत सी रचनाएं फ़ारसी के अतिरिक्त, गुजराती, मराठी, सिंधी, संस्कृत, आदि में भी लिखी गई पायी जाती हैं। ऐसे संतों में दादू दयाल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि उन्होंने इस प्रकार की पूरी-पूरी रचना को ही कभी-कभी वैसा रूप दे दिया है। उनकी कुछ गुज-