राती, पंजाबी एवं सिंधी भाषा की रचनाएं सुन्दर हुई हैं, किंतु उनकी संस्कृत रचनाओं में कोरी सधुक्कड़ी संस्कृत ही दीखती है। संस्कृत रचनाएं केवल सुन्दरदास की ही शुद्ध कही जा सकती है किन्तु वे संख्या में आधे दर्जन से भी अधिक न होंगी। संस्कृत में लिखने का अभ्यास कुछ अन्य संतों ने भी थोड़ा बहुत किया, किंतु उनके समान कोई भी सफल नहीं हुआ हैं। पंजाबी भाषा वाले क्षेत्र के संत कवियों ने जो रचनाएं की है उन पर अरबी, फारसी, तुर्की, लहंदा एवं पश्ती तक का प्रभाव प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। उसी प्रकार ब्रज भाषा एवं भोजपुरी क्षेत्र के संतों की रचनाओं में संस्कृत के तत्सम एवं तद्भव शब्दों की भरमार संत नामदेव एवं त्रिलोचन की रचनाओं पर मराठी की छाप उतनी अधिक नहीं है जितनी सिंगाजी की नीमाड़ी रचनाओं पर लक्षित होती है और इसका कारण कदाचित् यही हो सकता है कि पहली रचनाओं का प्रचार उत्तरी भारत की ओर अधिक रहता आया है। संत जयदेव के एक उपलब्ध पद में जो संस्कृत प्रभावित शैली दीख पड़ती है वह उनके कवि जयदेव होने का भी समर्थन करती हैं।
संतों में से लगभग ८० प्रतिशत की भाषा व्याकरण के नियमानुसार अशुद्ध ठहरती है। जिन लगभग २० प्रतिशत वालों की भाषा अधिक शुद्ध एवं सुवरी पायी जाती है उनकी रचनाओं के भी पाठभेद में बहुधा शंका उत्पन्न हो जाती है। वास्तव में एकाध को छोड़कर किसी भी संत की पूरी-पूरी रचनाओं का प्रामाणिक संस्करण अभी तक नहीं निकला है। प्रकाशित संस्करणों के संपादकों ने अब तक न तो अधिक हस्तलिखित प्रतियों के विषय में पूरी खोज की है और न ऐसी प्रतियों की पारस्परिक तुलना कर उसके आधार पर उचित निर्णय तक पहुँचने का कष्ट ही उठाया है। हस्तलिखित प्रतियाँ भी बहुधा ऐसे व्यक्तियों द्वारा लिखी पायी गई हैं जिन्हें या तो आवश्यक ज्ञान न था अथवा जिन्होंने मूल रचयिता के प्रति अपनी श्रद्धा दिलाने अथवा अपने पाण्डित्य प्रदर्शन करने के लिए ही