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भूमिका

पाठों में मनमाने परिवर्तन तक कर दिये हैं। किसी संत की रचना के मूल एवं प्रामाणिक पाठ का निर्णय तभी संभव है जब कि इसके लिए प्रयास करने वाले व्यक्तियों को भाषा विषयक ज्ञान के अतिरिक्त उसके वास्तविक मत एवं विचारधारा का भी पूरा परिचय मिल चुका हो, जिसमें सहृदयता हो तथा जिसकी कल्पना वा अनुमान करने की शक्ति, उसकी कुशाग्र बुद्धि के कारण, कहीं उससे औचित्य का उल्लंघन न करा दें। संत लोग क्रांतिकारी विचारों के शोषक और निर्भीक अवश्य थे, किंतु वस्तुस्थिति से वे कभी दूर भी नहीं जाना चाहते थे। उन्होंने अपने भावों को यथावत और उपयुक्त शब्दों में व्यक्त करते रहने की निरंतर चेष्टा की है। यदि वे कहीं-कहीं इसमें असफल जान पड़ते हैं और उनकी भाषा एवं शैली कहीं-कहीं सदोष दीख पड़ती है तो इसका कारण संभवतः यही हो सकता है कि वे कभी-कभी भाषावेश में रहा करते थे, अपनी भाषा से कहीं अधिक अपने पात्रों पर ही ध्यान रखते थे। उनमें अधिक संख्या ऐसे लोगों की ही थी जो प्रायः अशिक्षित वा अर्द्ध शिक्षित कहलाते हैं और जो इसी कारण काव्य-रचना में कभी दक्ष वा कुशल कहलाने योग्य नहीं होते ।

उपसंहार

'संतों' ने कवि-कर्म को कभी अधिक महत्त्व नहीं दिया। पद्य रचना को उन्होंने अपनी भावाभिव्यक्ति अथवा अपने मतप्रचार के लिए एक उपयोगी माध्यम के रूप में अपनाया था। अतः साधन से अधिक उसके साध्य की ओर ध्यान देना उनके लिए स्वाभाविक भी रहा। उनमें जो लोग निसर्गतः प्रतिभाशाली व्यक्ति थे उन्होंने बिना काव्यकौशल में निपुण हुए भी, अच्छी कविताओं की रचना कर डाली और जो लोग उस कला में सिद्धहस्त थे उन्होंने वैसी योग्यता के आधार पर भी अपने चमत्कार दिखलाये। परन्तु संतों में एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की ही थी जिनमें उक्त दोनों में से कोई भी विशेषता नहीं थी। उनकी पद्य रचना में इसी कारण, काव्य-सौंदर्य अथवा भाषा की सरसता का पता लगाना उचित