पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२४
संत-काव्य

नहीं कहा जा सकता। संतों में से कबीर साहब को हिंदी के प्रतिभाशाली कवियों में स्थान दिया जाता है और सुन्दरदास की गणना काव्यकला के समज कवियों में की जाती है। इनमें से भी, प्रथम की योग्यता पर विचार करते समय अधिकतर उनकी रचनाओं की लोकप्रियता पर ही विशेष ध्यान दिया जाता और दूसरे की प्रशंसा उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा की शुद्धता एवं छंदों की नियमानुकूलता पर ही निर्भर समझी जाती है। संतों में ये दोनों एक प्रकार से अपवाद स्वरूप माने जाते हैं और इन्हें छोड़ शेष की इस विषय में बहुत कम चर्चा की जाती है।

ऐसे निर्णय का एक प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि काव्य के बहुस्वीकृत लक्षणों में जो बातें विशेष रूप से आवश्यक समझी जाती हैं वे संतों की रचनाओं में बहुत कम देखने को मिलती हैं। काव्य का सौंदर्य बहुधा उसकी भाषा की सजावट और वर्णन शैली के आकर्षण में ही ढूँढ़ा जाता है और जिस रस की अभिव्यक्ति को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है वह शृंगाररस है जिसे 'रसराज' तक की उपाधि दे दी जाती है। इस रस का महत्त्व हमारे हिंदी साहित्य के इतिहास द्वारा भी सिद्ध किया जा सकता है। उसके 'वीरगाथाकाल' में, जिस समय वीररस की कविताओं की रचना हो रही थी, इस रस को उसकी बराबरी का स्थान मिल जाया करता था और भक्तिकालीन सगुणोपासक कवियों के आने पर भी, उनके इष्टदेव कृष्ण एवं राधा के प्रेमभाव को इतनी प्रधानता मिली कि इसका महत्त्व एक बार और भी बढ़ गया तथा शांतरस उसके सामने बहुत कुछ फीका सा पड़ गया। फलतः रीतिकाल तक आते-आते केवल शृंगार ही शृंगार दीख पड़ने लगा और वही सच्चे काव्य का निर्णायक अंग सा बन बैठा। इसी प्रकार हमारे साहित्य-मर्मज्ञों की मनोवृत्ति को शृंगारिक रूप देने में मध्यकालीन संस्कृत काव्य का भी हाथ समझा जा सकता है। हमारे साहित्यिक बहुत अंशों तक उन तत्कालीन संस्कृत ग्रंथों के भी ऋणी कहला सकते हैं जो साहित्य शास्त्र के नाम द्वारा अभिहित किये