पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१३८

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जाते हैं। शांतरस का समुचित आस्वादन आध्यात्मिक मनोवृत्ति वाले ही सहृदय व्यक्ति कर सकते हैं जो उन साहित्यिकों में बहुत कम पाये जाते हैं। ऐसे लोगों की दृष्टि में कुछ अन्य संत भी कवि कहलाने योग्य हैं। कबीर साहब की भांति प्रतिभाशाली अथवा सुन्दरदास के समान कलाकार न समझे जाने पर भी नामदेव, रैदास, नानक, दादू,रामदास, हरिदास,जगजोवन,रज्जब,धर्मदास, धरनी, मलूक, अर्जुन, गुलाब और पलटू जैसे एक दर्जन से भी अधिक संत इस प्रकार के मिलेंगे जिनके हृदयों की कोमलता,भावों की गंभीरता एवं भाषा की सरसता उपेक्षणोय नहीं कही जा सकती, किंतु जिनको न्यूनाधिक चर्चा कदाचित् उनके परंपरागत मानदंड के अनुसार योग्य न पाये जाने के ही कारण,नहीं की जाती! उनकी भली लगने वाली पंक्तियों को बहुधा व्यक्तिगत हृदयोद्गार अथवा सृक्ति कहकर ही टाल दिया जाता है जिसे उपर्युक्त दुमरी मनोवृत्ति वाले उतना न्यायसंगत नहीं समझते।

परंतु आधुनिक युग में परंपरागत रीतिकालीन कविता के प्रति इधर कुछ उदासीनता भी प्रकट की जानें लगी है और भाषा की कोरी सजावट एवं छंदोनियम के परिपालन को विशेष महत्व देने की परिपाटी प्रायःलुप्त भी होती जा रही है। गत कई वर्षों के छायावादो वातावरण में निजी आंतरिक भावों की अभिव्यक्ति को पूरा प्रश्रय मिला था । अव उसकी प्रतिक्रिया में उठने वाली प्रगतिवादो लहर ने काव्य-कला का वास्तविक उद्देश्य जनकल्याण को‌ ठहराकर श्रृंगारिकता को एक प्रकार से उपेक्षित बना डाला है। प्रगतिवादी कवि यथार्थवाद, साम्यवाद तथा उपयोगितावाद का परिपोषक है और वह रूढ़िवादिता का विरोधी एवं विचार-स्वातंग्य का प्रबल समर्थक भी है । जनता में वह आत्मविश्वास एवं आशावादिता का भाव भरना चाहता है और उसे अपनी वर्तमान दशा को पूर्ण रूप से परिवर्तित कर सच्चा मानव बन जाने के लिए आमंत्रित भी करता है । संत लोग इन बातों में उससे कुछ भी कम नहीं रहे हैं और जो कुछ भी