पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१३९

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अंतर समझ पड़ता है वह केवल दोनों के दृष्टि-भेद का परिणाम है । प्रगतिवादी कवि जहां उक्त सभी बातों पर आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टियों से विचार करता है वहाँ संत कवि उन्हें किसी आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही देखते आये हैं और आजकल के कवि जहां वर्ग संघर्ष के उपयुक्त भावों को प्रदर्शित करना चाहते हैं वहाँ वे लोग सदा निवैर भाव को ही प्रश्रय देते आये हैं। प्रतिकूल परिस्थिति में जहाँ प्रगतिवादी कवि समाज-विश्लेषण का सहारा लेता है वहाँ संत कवि आत्म-निरीक्षण का आश्रय लेता है । वास्तव में प्रगतिवादी कवि सामाजिक क्रांति में विश्वास करता है और वह राजनीतिक उथलपुथल के आधार पर ही. व्यक्ति को भी अपने विकास का अवसर देना चाहता है परन्तु संत कवि इसके विपरीत केवल व्यक्तिगत कायापलट में आस्था रखता है और उसी आधार पर महामानव की प्रतिष्ठा कर, उच्च सामाजिक स्तर के निर्माण द्वारा,भूतल पर स्वर्ग ला देने का स्वप्न देखता है । प्रगतिवादी कवि जिस अपने उद्देश्य की पूर्ति सामाजिक प्रभुत्व के बल पर करना चाहता है उसीकी सिद्धि संत कवि व्यक्तित्व के पूर्ण विकास द्वारा देखना चाहता है और इसीलिए वह अपने ढंग का उपदेश भी दिया करता है । उदाहरण के लिए कबीर साहब का कहना "मैंने विवेक अर्थात् किसी बात के भले वा बुरेपन अथवा सत् व असत का स्वयं निर्णय कर लेने की शक्ति को अपना गुरु बनाया है ।" और वे इसी कारण उपदेश भी देते हैं "परमात्मा के नियमों का अंतिम ज्ञान हो जाना संभव नहीं, अतएव तुम अपने अनुमान के ही बल पर अपने जीवन का कार्यक्रम निर्धारित करो ।।९ संत दूलनदास ने भी इसी प्रकार, अपने निजी मन की शक्ति पर ही निर्भर रहने का ही उपदेश दिया है और कहा है। 'कबीर में सो गुरु पाया जाका नाड विवेको' (बिग्रंथ सूही ५)। करता की गति अगम है सू चलि अपनै उनमान(क प० . सा० ४, पृष्ठ १८)। 23