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भूमिका

काव्य-परिचय

'काव्य' के संबंध में अनेक साहित्यज्ञों ने बहुत कुछ विचार किया है। उन्होंने इसकी भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ भी दी हैं। भरत मुनि से लेकर आधुनिक विद्वानों तक ने इस ओर सदा अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार ध्यान दिया है और उसी के आधार पर उन्होंने इसका परिचय भी देने के प्रयत्न किये हैं। उदाहरणार्थ यदि किसी ने ऐसा करते समय इस उद्देश्य वा परिणाम को अधिक महत्व दिया है तो दूसरे ने इसकी कतिपय विशेषताओं को ही प्रधानता दी है। इसी प्रकार यदि कुछ लोगों ने इसके मूलतत्व वा आत्मा की ओर निर्देश दिया है तो अन्य लेखकों ने इसके बाह्य रूप को ही सब कुछ मान लिया है। वर्तमान आलोचकों द्वारा इसी कारण उनकी विभिन्न परिभाषाएँ कभी-कभी एकांगी एवं अनुपयुक्त ठहरा दी जाती हैं और उन पर पूर्ण संतोष नहीं प्रकट किया जाता। फिर भी अपनी अपनी परिभाषा देने की परंपरा अब तक लगभग पूर्ववत् ही चलीआ रही है। अपने पूर्वकालीन साहित्यज्ञों के ऐसे 'दोषपूर्ण' वक्तव्यों को सुधारने के प्रयत्न में ये लोग अपनी ओर से भी कुछ न कुछ नवीनता लाते जा रहे हैं। इन विद्वानों में कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जिन्होंने यदा-कदा उक्त भिन्न-भिन्न अंगों का समन्वय करने की भी चेष्टा की है। यदि इस प्रकार के लोगों की दृष्टि से विचार किया जाय तो सच्चा काव्य केवल उस प्रभावपूर्ण वाक्य वा वाक्यसमूह को ही कह सकेंगे जिसके शब्द सारगर्भित हों, जो गहरी अनुभूतिजन्य