"सत्य के विषय में वेदों एवं पुराणों ने क्या कहा है, कुरान की किताब में क्या लिखा है अथवा पंडित और काजी क्या कहते हैं कुछ भी महत्व नहीं रखता। यह बात निजी अनुभूति द्वारा प्रतीति बंधा देने की है![१] अपने जीवन सिद्धान्त को अपने आप स्थिर करने तथा उसकी अनुभूति के बल पर सदा दृढ रहने वाले चरित्रवान व्यक्ति को मलूकदास ने सर्वश्रेष्ठ ठहराया है और कहा है "हिंदू और मुसलमान सभी परमेश्वर की वंदना किया करते हैं, किंतु परमेश्वर स्वयं उस महापुरुष की वंदना करता है जिसका ईमान दुरुस्त है अर्थात् जिसके चित्त की सद्वृत्ति में किसी प्रकार का विकार नहीं आ पाता।[२]
आत्म-निर्भरता एवं चरित्रवत्ता की महत्ता की ही भांति संतों ने समानता के भाव का भी वर्णन उसी प्रकार के दृष्टिकोण से किया। कबीर साहब का कहना है "जिस समय मैंने अपने और पराये सभी को एक समान जान लिया तभी मुझे निर्वाण की प्राप्ति हुई।"[३] और वे इसी कारण वेदों और कुरानादि किताबों, दीन (धर्म) और दुनियां (सांसारिकता) एवं पुरुष और स्त्री के बीच दीख पड़ने वाले अंतर को एक बहुत बड़ी अड़चन उपस्थित कर देने वाले भेदवाद का कारण बतलाते हैं। वे कहते हैं "जब एकही बंद, एकही मलसूत्र और एकही चाम तथा गूदे (अथवा यों कहिए कि जब) एक ही ज्योति से सभी कोई उत्पन्न हुए हैं तो ब्राह्मण एवं शुद्र का यह