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संत-काव्य

विचित्र भेद कहाँ से आ जाता है?"[१] दादू दयाल ने इस प्रकार के भेदभाव की दार्शनिक व्याख्या करते हुए बतलाया है "जब पूर्ण ब्रह्म की दृष्टि से विचार किया जाता है तो सर्वात्मभाव की सिद्धि होती है, किंतु जब काया अर्थात प्रत्येक इकाई के विचार से देखते हैं, उसी वस्तु में अनेकता का भी भास होने लगता है।"[२] रज्जबजी ने इसीलिए "समता ज्ञान के विचार से सभी कुछ को पांचों तत्वों का विस्तार मात्र ही"[३] मान लिया है। वे सब को एक भाव से ही देखना चाहते हैं और उनका कहना है कि इसी कारण, हमें चाहिए "सभी प्राणियों की सेवा हम ठीक उसी निष्कामभाव के साथ किया करें जिस प्रकार धरती, आकाश, सूर्य, चंद्र और वायु किया करते हैं।"[४]

जो हो, ये संत कवि, कम से कम गत पांच सौ वर्षों से भी अधिक समय से एक विशिष्ट विचारधारा एवं निश्चित कार्यक्रम के पोषक और समर्थक बने रहते आये हैं और अपने जीवन में उनका प्रतिनिधित्व करने की भी


  1. 'ऐसा भेद विसूचन भारी।
    वेद कतेब दीन अरूं दुनिया, कौन पुरिष कौन नारी॥टेक॥
    एक बूंद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
    एक जोति घै सब उतपनां, कौन बाम्हन कौन सूदा।' क॰ ग्रं॰ (पद
    ५७, पृष्ठ १०६)।
  2. 'जब पूरण ब्रह्म विचारिये तब, तब सकल आमता एक।
    काया के गुण देषिये, तो नाना वरण अनेक॥' दादूदयाल की बानी
    (सा॰ १३०, पृष्ठ २०२-३)।
  3. रज्जब समता ज्ञान विचारा, पंचतत्त्व का सकल पसारा॥
    रज्जबजी की बानी (सा॰ २१, पृष्ठ २०१)।
  4. 'निहकामी सेवा करें, ज्यू धरती आकाश।
    चंद सूर पाणी पवन, ज्यूं रज्जव निजदास॥" वही, (सा॰ २२०
    पृष्ठ ३५३)।