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भूमिका

इन्होंने चेष्टा की है। इनकी बातें नितांत नवीन नहीं हैं और इनका अन्य व्यक्तियों द्वारा पथ-प्रदर्शन का किया जाना भी सिद्ध हो सकता। फिर भी इसकी कुछ अपनी भी महत्त्वपूर्ण देन है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इनकी एक अपनी संत परंपरा है जो आज तक किसी न किसी रूप में वर्तमान है और जिसमें गिने जाने योग्य संतों की वानियां सर्वथा संग्रहणीय हैं। इस परंपरा के सुदीर्घ काल को यदि हम चाहें तो कतिपय विशेषताओं के अनुसार निम्नलिखित चार युगों में विभाजित कर सकते हैं और उसीके अनुसार उनकी रचनाओं का समुचित मूल्यांकन भी कर सकते हैं। ऐसी दशा में प्रत्येक संत अपने मौलिक सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करता हुआ अपने-अपने समय की विशेषताओं का भी परिचायक जान पड़ेगा और प्रकृति एवं परिस्थिति के तुलनात्मक अध्ययन का वह इस प्रकार, एक अवसर भी उपस्थित कर सकेगा।

(१) प्रारंभिक युग (सं॰ १२०० १५५०)जिसके जयदेव से लेकर धन्ना भगत तक के संतों ने अपने उपदेशों का प्रचार स्वतंत्र एवं व्यक्तिगत रूप में ही किया और जिनकी रचनाएं एक विशेष ढंग की ही होती रहीं।

(२) मध्ययुग (पूर्वार्द्ध सं॰ १५५०-१७००) जिसके जंभनाथ से लेकर मलकदाम तक के संतों ने संत मत का प्रचार अधिकतर पंथों के संगठन द्वारा किया और जिनकी रचनाशैली पर क्रमशः बाहरी प्रभाव भी पड़ने लगे।

(३) मध्ययुग (उत्तरार्द्ध १७००-१८५०) जिसके बावा लाल से लेकर रामचरन तक के संतों में सांप्रदायिकता की प्रवृत्ति अधिक उग्र हो गई थी तथा जिनकी रचनाएं रीतिकालीन शैलियों द्वारा भी प्रभावित हुई थीं।

(४) आधुनिक युग (सं॰ १८५०-) जिसके रामरहसदास से लेकर स्वामी रामतीर्थं तक के संतों में संत मत के पुनरुद्धार की प्रवृत्ति जगी और जिन्होंने विश्व कल्याण के उद्देश्य से भी अपने विचार प्रकट किये।