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१. प्रारंभिक युग
(सं॰ १२०० सं॰ १५५०)
सामान्य परिचय

संत परंपरा का प्रथम युग, वस्तुतः, संत जयदेव से आरंभ होता है और उनके पीछे प्रायः दो सौ वर्षों तक के संत अधिकतर पथप्रदर्शकों के ही रूप में आते हुए दीख पड़ते हैं। विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी में कबीर साहब का आविर्भाव हुआ, जिन्होंने, सर्वप्रथम, संत मत के निश्चित सिद्धांतों का प्रचार, बिस्तार के साथ एवं स्पष्ट शब्दों में, आरंभ किया। उनके समसामयिक संतों द्वारा उनके उक्त कार्य में प्रोत्साहन भी मिलने लगा। किंतु उनके कार्यक्रम में कोई व्यवस्था नहीं थी। संत-मत का संगठित एवं सुव्यवस्थित प्रचार उस समय से आरंभ हुआ जब गुरु नानक देव (सं॰ १५२६-१५९६) जैसे कुछ संतों ने इसके लिए आगे चलकर पृथक् वर्गों का निर्माण भी आरंभ कर दिया। इस प्रकार, यह युग सं॰ १५५० के लगभग समाप्त होकर, मध्य युग के रूप में दीख पड़ने लगा।

प्रारंभिक युग के प्रथम दो सौ वर्षों के अंतर्गत केवल थोड़े से ही संत हुए। संत जयदेव के समय तक महायानी बौद्ध धर्म के वज्रयान, कालचक्रयान एवं सहजयान जैसे संप्रदायों का आरंभ हो चुका था और कम से कम पुर्वी भारत में उनकी अनेक विशिष्ट बातों का समादेश क्रमश: स्थानीय वैष्णव-धर्म में होता जा रहा था। भारत के पश्चिमी एवं दक्षिणी भागों में भी उनका स्थान तब तक नाथ संप्रदाय ने ले लिया था और उधर के अन्य संप्रदायों को भी वह धीरे-धीरे प्रभावित करता जा रहा था। संत जयदेव वैष्णव धर्म के अनुयायी थे और उनका संबंध