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प्रारंभिक युग

उन्हें आज तक 'आदि संत' कहने तक की परिपाटी चली आती है। उनके पूर्ववर्ती संतों की गणना भी, इसी आधार पर, केवल पथ-प्रदर्शकों के रूप में ही की जाती है और उन्हें उतना महत्त्व नहीं दिया जाता।

प्रारंभिक युग के उपर्युक्त प्रथम दो सौ वर्षों वाले संतों की उपलब्ध रचनाओं में जहां सगुणोपासना का मोह, बौद्ध एवं नाथ पंथीय साधनाओं का प्रभाव अथवा संत मत की मूल बातों का केवल प्रसंगवत् उल्लेख-सा ही दीख पड़ता है, वहां उसके पिछले डेढ़ सौ वर्षों वाले संतों की कृतियों में गुण एवं निर्गुण से परे समझे जाने वाले परमतत्व की मान्यता है, मानसिक माता की ओर विशेष झुकाव है तथा कोरी भक्ति के साथ-साथ सदाचरण एवं लोकव्यवहार के प्रति ध्यान देने की प्रवृत्ति भी विशेष रूप से लक्षित होती है। इसके सिवाय, उक्त प्रथम काल के संत जहाँ अधिकतर छिटफुट रूप में ही दीख पड़ते हैं वहां पिछले काल के स्वामी रामानंद आदि संतों का काशी जैसे केन्द्र में एक पृथक् वर्ग-सा भी बना दृष्टि में आने लगता है और उसके भीतर अपने मत के प्रचार की अभिलाषा भी प्रतीत होने लगती है। इस दूसरे काल की रचनाएं पूर्वकालीन संतों की उपलब्ध पंक्तियों से कहीं अधिक स्पष्ट, सरस सुव्यवस्थित एवं प्रभावपूर्ण है और प्रथम काल में प्रवर सुन्दर पदों के रचयिता जहां केवल संत नामदेव ही दीख पड़ते हैं, वहां दूसरे के मध्य में ही, कबीर साहब एवं रैदासजी जैसे कम से कम दो संत आ जाते हैं जिनकी कृतियाँ उच्च कोटि की कही जा सकती हैं और जिनमें से प्रथम अर्थात् कबीर साहब की गणना हिंदी के प्रथम श्रेणी के कवियों तक में की जाती है।

संत जयदेव

संत जयदेव को प्रायः सभी लोग प्रसिद्ध काव्य 'गीत गोविन्द' का रचयिता कवि जयदेव मानते आए हैं जो संभवतः, 'पीयूष लहरी' नामक एकांकी नाटक के भी प्रणेता थे और जिन्हें सेन वंशी राजा लक्ष्मणसेन (सं॰ २३६-१२६२) का दर्बारी कवि मानने की भी परंपरा चली आती