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संत-काव्य

है। इस मत वाले विद्वानों ने उनकी जन्मभूमि को वीरभूम जिले (बंगाल प्रान्त) का केंदुली गांव माना है जो गंगा नदी से १८ कोस की दूरी पर बसा हुआ है। किन्तु कुछ अन्य लेखकों के अनुसार यह स्थान वास्तव में, केंदुली सासन गांव हैं जो उड़ीसा प्रांत में, पुरी के निकट किसी 'प्राची' नदी पर अवस्थित है। उनके उड़िया होने का प्रमाण इस बात में भी दिखलाया जाता है कि वहां के लोग इस कवि से बहुत अधिक परिचित जान पड़ते हैं। इस मत के अनुसार कवि जयदेव राजा कामार्णव (सं॰ ११९९-१२१३) तथा राजा पुरुषोत्तम देव (सं॰ १२२७-१२३७) के समकालीन थे। इस प्रकार इन दोनों ही मतों के आधार पर, हम इस कवि का जीवन-काल विक्रम की १३वीं शताब्दी में ठहरा सकते हैं। जयदेव के वंशज अपने पूर्वजों का संबंध पंजाब से बतलाते हैं। उनके अनुसार के पंजाब से ही उड़ीसा और बंगाल में आये थे। उड़ीसा का प्रांत वैष्णव संप्रदाय की ही भांति, बौद्धों के वज्रयान एवं सहजयान संप्रदायों का भी एक प्रसिद्ध केन्द्र रह चुका है और जयदेव को सहजयान द्वारा प्रभावित भी कहते हैं। अतएव संभव है कि कवि जयदेव उड़ीसा प्रांत के ही मूल निवासी हों, किंतु पीछे उनका कोई न कोई संबंध बंगाल प्रांत के साथ भी हो गया हो।

फिर भी, शृंगाररस-प्रधान 'गीत गोविन्द' काव्य तथा उसमें किये गए कला-प्रदर्शन के कारण, कवि जयदेव एवं संत जयदेव के एक ही व्यक्ति होने में संदेह भी किया जा सकता है, जब तक इसके लिए कोई स्पष्ट प्रमाण न उपलब्ध हो जाय। कुछ टीकाकारों ने उक्त काव्य मे आध्यात्मिक रहस्य खोज निकालने के प्रयत्न अवश्य किये हैं किंतु उस भक्ति का उद्रेक जिसे संत कबीर साहब ने अपनी कुछ पंक्तियों द्वारा, संत जयदेव की विशेषता बतलायी है 'गीत गोविन्द' का प्रधान विषय सिद्ध नही होता और कवि जयदेव तथा संत जयदेव दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति प्रतीत होने लगते हैं, जिस कारण दोनों का दो भिन्न-भिन्न स्थानों तथा भिन्न-भिन्न समयों में रहना भी संभव है।