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प्रारंभिक युग


सिखों के 'आदि ग्रंथ' में संत जयदेव के दो पद संगृहीत हैं, जिनमें से एक में, पंडिताऊ भाषा द्वारा, भक्ति की प्रशंसा की गई है और दूसरे का विषय कतिपय योग-संबंधी बातें हैं जो नाथ-पंथियों अथवा अन्य संतों की भाषा में लिखी गई हैं। विषय की दृष्टि से दोनों ही पद संतमतानुकूल कहे जा सकते हैं और वर्णन-शैली के अनुसार पहला पद कवि जयदेव की भी कृतियों से मेल खाता है। पदों के पाठ, उक्त ग्रंथ के अंतर्गत, पूर्णतः शुद्ध नहीं जान पड़ते और उनके कई शब्द बहुत कुछ विकृत एवं अस्पष्ट हो गए हैं।

पद

परमात्म भक्ति का उपदेश (१)

परमादि पुरष मनोषिमं सति आदि भावरतं।
परमदभुतं परक्रिति परं, जदिचिंति सरबगतं॥१॥
केवल रामनाम मनोरमं वदि अस्ति तत मइअं।
न दनोति जसमरणेन जनम जराधि मरण भइअं॥रहाउ॥
इछस जमादि पराभयं, जसु सुसति सुक्रित क्रितं।
भवभूतभाव समद्रिअं परमं प्रसंनमिदं॥२॥
लोभादि द्विसदि परग्रिहं जदि विधिआचरणं।
तजि सकल दुहकित विदुरमती, भजु चक्रधर सरणं॥३॥
हरिभगत निज निहकेवला, रिद करमणा वचसा।
जोगेन कि जगेन किं, दानेन किं, तपसा॥४॥
गोविंद गोविंदेति जपि नर, सकल सिधिपदं।
जैदेव आइउ तससफुटं, भवभूत सरबगतं॥५॥

मनोपिमं = अनुपम, अद्वितीय। सति...रतं = सत्यादिभावों से युक्त है। परकिति परं = प्रकृति वा मायादि से सर्वथा भिन्न है। जदि...सरबगतं = जी अंचित्य है और सब में व्याप्त भी है। वदि मइअं =