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संत-काव्य

अमृत तत्त्वमय (जो रामनाम है उसे) स्मरण करो। नदनीति जसमरणेन = जिसके स्मरण से जन्म, जरा, कष्ट तथा मरण के भय नहीं सता पाते। इछसि...क्रितं = यदि यमादि के ऊपर विजय की इच्छा रखते हो और यदि यश, कुशल (सृसति = स्वास्ति?) एवं सत्कर्म भी तुम्हारा अभीष्ट हैं। भव...मिदं = यदि भूत, भविष्य एवं वर्त्तमान अर्थात् सर्वकाल में समान रूप से रहने वाले (समत्रिअं समाव्ययं) अविनाशी परम प्रसन्न उस (परमात्मा) का पा लेना तुम्हारा ध्येय है। लोभादि ... .दुरमती = हे दुर्मति, जो लोभादि की दृष्टि हैं, जो परिग्रह (धन संचय) का स्वभाव हैं और जो (जदि विधि = जो अविहित) आचरण है तथा जो दुष्कर्म है उन सबका त्याग कर दो। हरिभगत....वचसा = मन, वचन एवं कर्म द्वारा हरि की निष्केवला अर्थात् अनन्य भक्ति को अपनाओ। जोगेन....तपसा = योग, यज्ञ, दान अथवा तपश्चर्या सभी व्यर्थ हैं। सिधिपदं = सभी सिद्धियों का अंतिम आधार (अथवा यदि 'पदं = प्रद' हो तो 'देने वाला')। आइउ = कथन किया है। तस = उसको। सफुटं = स्पष्ट शब्दों में। अथवा (यदि आइउ = आया है हो तो) तस उसकी शरण में। सफुर्द = पूर्णरूप वा प्रत्यक्ष रूप में। भव.....गर्त = जो वर्तमान एवं भूत में सर्वत्र व्याप्त है।

(२)

भीतरी साधना

चंद्रकांत भेदिआ, नादसत पूरिआ, सूरसत षोडसादतु कीआ।
अलबबलु तोडिआ, अचल चलु थपाआ,
अघडु घड़िया तहा अपाउ पीआ॥१॥
मन आदि गुण आदि वषाणिआ।
तेरी दुविधा द्विसटि संभानिआ॥रहाउ॥
अरधिकउ अरधिया, सरधिकउ सरघिआ,
सललिकउ सललि संमानि आइआ॥
वदति जैदेउ जैदेवकउ रंमिया,
ब्रह्म निरबाणु लिवलीणु पाइआ॥२॥