पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३७
प्रारंभिक युग

चंदसत भेदिआ = चंद्र अथवा इड़ा नाड़ी अर्थात् बायीं नाक द्वारा प्राणायाम करके कुंभक की क्रिया की। नादसत पूरिआ = नाव से, अर्थात् संभवतः कुंभक से भीतर लाये गए श्वास द्वारा पूरक प्राणायाम की क्रिया की। सूर सतषोड़ सादतु कीआ = सूर्य अथवा पिंगला नाड़ी अर्थात् दाहिनी नाक द्वारा प्राणायाम कर के रेचक की क्रिया की। (यहाँ पर 'षोडसा' = छोड़िआ और 'दतु' = दीक्षित अभ्यास के अर्थ में प्रयुक्त समझे जा सकते हैं)। अवल.. .तोडिआ = इंद्रियादि का बल तोड़ कर में उनकी दृष्टि से निर्बल हो गया। अचल थापिआ = चंचल चित्त को अंचल एवं स्थिर कर दिया। व घडिआ = शरीरादि को अभूतपूर्व रूप में परिवर्तित कर कायापलट कर दिया। अपिउ पीआ = जो कभी पिया न जा सका था उस (अमृत) का पान किया। मन वषाणिआ = मन आदि के व्यापारों एवं गुण अर्थात् प्राकृतिक स्वभावादि के रहस्य का परिचय पा कर उनके कथन में प्रवृत्त हुआ। तेरी संमानिआ = इस प्रकार तुम्हारी दुविधा वा भेदभाव भरी दृष्टि को एकत्व के भाव में लीन करने के प्रयत्न किये। अरिधिकउ सरधिया = मैंने आराध्य अर्थात् वस्तुतः आराधना योग्य परमात्मा की आराधना की। सरधिकउ सरधिआ = मैंने श्रद्धेय अर्थात् वस्तुतः श्रद्धा के अधिकारी परमात्मा के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। सललिकउ... आइआ जल का प्रवेश जल में करा दिया अर्थात् मेरा जीवात्मा परमात्मा में लीन हो गया। (दे॰ 'ज्यूं जल में जल पैसि न निकस यूं दुरि मिल्या जुलाहा कबीर।। जैदेवकउ....पाइआ = जैदेव अर्थात् परमात्मा में प्रवेश कर ब्रह्म पर्यंत निर्वाण के भीतर विलीन हो गया।

संत सधना

संत सधना, संभवतः विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में, किसी पश्चिमी प्रदेश में उत्पन्न हुए थे और वे नामदेव के समकालीन थे। इनकी जाति कसाई की बतलायी जाती है और यह भी प्रसिद्ध हैं कि ये स्वयं मारे हुए