रिदै छुरी संधिआनी, पर दरबु हिरन की बानी॥२॥
मिल पूजसि च गणेसं, निसि जागसि भगति प्रवेसं।
पग नाचसि चितु अकरमं, ए लंपट नाच अधरमं॥३॥
विग आसणु तुलसी माला, कर ऊजल तिलकु कपाला।
रिदे कूडु कंठि रुद्रषै, रे लंपट किसनु अभाषं॥४॥
जिनि आतम् ततु न चीन्हिश्रा, सभ फोकट धरम अबीनिआ।
कहु वेणी गुरमुषि विआवे, बिनु सतिगुर बाट न पावै॥५॥
करतल = हथेली वा हाथ में। हिरन = हरिण। बानी = स्वभाव।
संत त्रिलोचन
संत त्रिलोचन का जन्म मं॰ १३२४ में हुआ था और वे वैश्य कुल के थे। साधुओं के बड़े भक्त थे और उनकी पत्नी का भी वही स्वभाव था। कहा जाता है कि उनके यहां स्वयं भगवान् ने ही, 'अंतर्यामी' के नाम से कुछ दिनों तक नौकरी की थी। त्रिलोचन जी एवं संत नामदेव की पारस्परिक मंत्री का भी उल्लेख मिलता है और यह भी प्रसिद्ध है कि 'त्रिलोचन' नाम उनके भूत, भविष्य एवं वर्तमान के एक साथ जानकार होने के कारण, पड़ा था। त्रिलोचन तथा नामदेव को बातचीत से संबंध रखने वाले भी कुछ दोहे उपलब्ध हैं। उनकी अपनी केवल चार रचनाएं 'आदिग्रंथ' में संगृहीत पायी जाती हैं और चारों ही पद ऐसे हैं जिनकी भाषा पर मराठी का प्रभाव लक्षित होता है। त्रिलोचनजी दक्षिण देश के निवासी थे। उनके मरणकाल का पता नहीं चलता।
पद
(१)
अंतर मलि निरमल नहीं कीना, बाहरि भेष उदासी।
हिरवै कमलु घटि ब्रह्म न चीन्हा, काहे भइआ संनिआसी॥१॥
भरमे भूली रे जैचंदा। नहीं नहीं चीन्हिआ परमानंदा॥रहाउ॥
घरि घरि पाइआ पिंणु बधाइया, पिंधा मुंदा माइआ।